नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
बड़ी दी उसे कितना समझाती रहीं, "पन्ना, तू तो समय से पूर्व ही रिटायर हो रही है
री! हमारा अनुभव ही तो हमारा मूल्य निर्धारित करता है, और फिर तू तो ज्यों की
त्यों धरी है-अभी से क्यों कण्ठी पहन ली?''
पर पन्ना जिद पर अड़ी रही थी, धीर-धीरे बंधे ग्राहकों ने स्वयं ही उसकी आशा छोड़
दी। आज उसने बड़ी दी का कहना माना होता, तो वह भी इन आठ वर्षों में कलुषित
धनराशि में कितने ही शून्य और बढ़ा सकती थी। आठ वर्षों में, विद्युत रंजन को छोड़
कोई पुरुष, उसकी तर्जनी तक नहीं पकड़ पाया था। आज उसी का प्रेमी स्वयं अपने
हाथों में उसके उजले, धुले चेहरे पर, कलुष की कालिमा पोत गया?
घृणा, क्रोध और व्यथा से उसका सर्वांग थरथर कांप उठा। कहां जाएगी अब! ऐसी
अवस्था में बड़ी दी के यहाँ रहने में भी, दिन-रात अपमान की घूँट घुटकनी होगी।
बहुत पहले अम्मा उसकी रुग्ण मौसी को लेकर हवा बदलने के लिए अल्मोड़ा गयी थी। उन
दिनों क्षय रोगियों को कैण्टोनमेण्ट की सरहद से बाहर रहना होता था। ब्राहटन
कोर्नर के सीमान्त में बिताये उन दिनों की स्मृति ही उसे वहाँ खींच ले गयी
थी। बैंक में उसका उदार विदेशी जनक उसके नाम जिस धनराशि को छोड़ गया था, उसे आज
तक उस अदर्शी पिता के प्रति अभिमानवश ही उसने छुआ भी नहीं था। अब उसी के सहारे
वह दिन काट लेगी। पर तब वह क्या जानती थी कि विधाता का कूर खिलवाड़ उसकी गोदी के
धन को छीनकर, दूसरे की सन्तान से उसकी गोद भर देगा।
बड़ी दी को उसने एक संक्षिप्त पत्र में ही सबकुछ लिख दिया।
'बड़ी दी-
तुम सबके आशीर्वाद से मुझे कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है। तुमने उस दिन कहा था
ना, एक-न-एक दिन मुझे लौटकर तुम्हारी ही शरण में आना होगा। अब तुम्हारी शरण में
दो प्राणी एक साथ आ रहे-
तुम्हारी
पन्ना-'
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