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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''मैं हमेशा के लिए तुम्हारी होकर 'बैताल मसूद' में आ गयी तो तुम्हीं दिन-रात मेरी जिन्दगी का परदा उठा-उठाकर झाँकते रहोगे, और फिर इसका क्या होगा भला?'' उन्होंने पन्ना को अपनी ओर खींचकर पूछा था।
''क्यों? मेरी सलिा के लिए मेरी उतनी बड़ी हवेली में क्या एक कमरा नहीं जुटेगा?'' रहमतुल्ला की भूरी मूँछें सतर हो गयी थी।
''बस मियाँ, रहे बुझू के युजु! यह चेहरा देखते हो? यही मोल आँका इसका? तुम्हारी हवेली के एक कमरे में तो इसके पैर की एक जूती भी नहीं समाएगी। ऐसी सुन्दरी बहन को दहेज में ले जाये, ऐसी मूर्ख नहीं है राणा की बेटी!'' रहमतुल्ला उसी रात को रूठकर हैदराबाद चले गये और वहाँ से अपनी चचाज़ाद बहन को ब्याह लाये थे! अपनी कमसिन नवेली के लाड़ में डूबकर वे शायद बड़ी दी को हमेशा के लिए भूलकर रह गये थे।

पन्ना न होती तो शायद बड़ी दी आज बेगम रहमतुल्ला होतीं? ऐसी सेही बड़ी दी से वह पन्ना इतना बड़ा कलंक छिपा क्यों गयी? पन्ना गहरे सोच में डूबती-उतराती अपने कमरे में लेटी रही। दो-तीन बार आकर खानसामा खाने के लिए पूछकर लौट गया। पानी भी उसके कण्ठ के नीचे नहीं उतरा था। जितना ही वह सोचती, भविष्य का अन्धकार उतना ही भयावह बन उसे अपने में समेट लेता। दोपहर को विद्युतरंजन स्वयं ही न जाने कहीं से टपक पड़े। बड़ी लड़की की ससुराल से तार पाकर भागते गये थे। दामाद की, शिकार-यात्रा में हाथी के हीदे से नीचे गिरकर, हाथ की हड्डी टूट गयी थी। वहीं से लौट रहे थे। पटना में दूसरी गाड़ी के लिए उन्हें चार घण्टे रुकना था। पन्ना को बहुत दिनों से नहीं देखा था, सोचा, एकदम पहुँचकर उसे अचरज में डाल टेंगे। पन्ना की सिग्ध हँसी, मधुर सम्भाषण और त्रुटिहीन सेवा, मनहूस यात्रा की सरिा थकान दूर कर रख देगी। लेकिन पीली कोठी का सन्नाटा देखकर ही उनका माथा ठनक गया। न तबले की थाप, न घुँघरू की छनक, न मीठे गली की हँसी। पता लगा, बड़ी दी लड़कियों को लेकर उसी गयी हैं। छोटी दी हैं, तबीयत ठीक नहीं है। सुबह से बिना कुछ खाये-पिये दो-मंजिले में लेटी हैं।

विद्युतरंजन को सहसा सम्मुख खड़ा देखकर, पन्ना यल से कण्ठस्थ किया अपना पाठ भूल गयी।

क्या कहे? कैसे आरम्भ करे? सदा फूँक-फूँककर पैर रखने वाली पन्ना, जो उद्दाम यौवन के प्रथम ज्वार-भाटे में भी चट्टान-सी दृढ़ खड़ी रही थी, आज वीतयौवना होकर कैसे ढलती वयस की सामान्य तरंगों में वह गयी।
''क्या तबीयत ठीक नहीं है पन्ना?''

शायद वियुतरंजन के नरम गले के प्रश्न ने ही उसकी रुलाई को उभाड़ दिया। वह सिसकियों के बीच सब कुछ कह गयी। मापिक का कठोर आदेश कुछ ही दिनों का नोटिम दे गया था। ''इसी बीच तुम्हें कुछ व्यवस्था करनी होगी। तुमने एक बार कहा था ना कि तुम्हसि कहीं एक छोटी-सी शैटी है? वही दे देना मुझे, वहीं पड़ी रहूँगी।''

''पागल हो गयी हो क्या!'' विद्युतरंजन ऐसे दूर छिटककर, कुरसी का सहारा लेकर खड़े हो गये, जैसे बिजली का झटका लग गया हो, ''इसी महीने मुनिया माँ बनने वाली है, चुन्नी की सगाई नरसिंहगढ़वालों से करीब-करीब पकी हो गयी है। ऐसे में तुम्हें यह क्या सूझी?''
''अच्छा?'' सदा शान्त रहने वाली पन्ना कुद्ध शेरनी की भाँति उछलकर उसी के पास खड़ी हो गयी, ''तुम्हारी एक बेटी माँ बनने वाली है, दूसरी दुल्हन, इसी से उस तीसरे की तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है जिसे मैं ही नहीं, तुम भी इस संसार में ला रहे हो।''
''यह क्यों भूल जाती हो पन्ना कि इसे मैं ही नहीं, कोई और भी इस दुनिया में ला सकता है,'' इतना कहकर वह तीर-सा बाहर निकल गया था। पन्ना को जैसे पक्षाघात का झटका पंगु बना गया। न वह हिली, न डुली। देर तक वैसी ही खड़ी रह गयी। इतना बड़ा लांछन? आज आठ वर्षों से बड़े से बड़ा प्रलोभन भी उसे नहीं डिगा पाया। केवल कण्ठ और नृत्य की बाजीगरी से ही ग्राहकों को सम्मोहित कर वह इतना कमा लेती थी कि शरीर को गिरवी रखने की न आवश्यकता ही थी, न इच्छा। विद्युतरंजन से वह कभी कुछ नहीं छिपाती थी, फिर भी इतने बड़े दुस्साहस से ऐसी कठोर बात वह कैसे कह सका?

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