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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


उस व्यक्ति के कुटिल स्वार्थी स्वभाव को पन्ना नहीं पहचानती थी, ऐसी बात नहीं थी। वह यह भी जानती थी कि उसकी सोने के अण्डे देने वाली बत्तख-सी पत्नी, अपनी एक-एक बार की मायके-यात्रा से अशर्फियाँ-भरी थैलियाँ लेकर लौटती है। इधर पाँच ही वर्ष में पति को एक स्वस्थ पुत्र एवं दो सुन्दरी पुत्रियाँ देकर उसने अपनी गृहस्थी की नींव ठोस बना ली थी। फिर भी लाख चाहने पर भी पन्ना उसके जादुई व्यक्तित्व से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर पायी थी। दोनों में ठनकती तो कभी-कभी पन्ना के जी में आता, उसकी छाती पर चढ़कर अपने उस अहंकारी दम्भी प्रेमी का गला घोंटकर रख दे। पर दूसरे ही क्षण उसके आलिंगन-पाश में वह अपना क्रोध, कलंक और अपमान भूलकर रह जाती। पर आज, बीस वर्षों से अडिग अड़ा प्रेम का आलीशान महल, दुर्भाग्य के एक ही भूकम्पी धक्के में भरभराकर गिर गया था। वह हृदयहीन व्यक्ति उसे दुर्दिन के ज्वार-भाटे में डूबते-उतराते अकेले ही छोड़कर कहीं दूर खिसक गया था।

प्रथम यौवन के गरजते-तरजते समुद्र में जब दोनों समय की पतवार दूर पटक,
मस्ती से डगमगाती तरणी में तैरते, आधा फ़ासला पार कर चुके थे, तब मँझधार में ही तूफ़ान का आभास पाकर कुशल तैराक क्यीधार कूदकर तैरता किनारे लग गया था। रह गयी थी केवल डूबता तरणी और भय से काँपती निराधार सहचरी। चालीसवें वर्ष में पन्ना माँ बनेगी। इसी हास्यास्पद परिस्थिति की व्रीड़ा से वह स्वयं ही संकुचित होकर, जमीन में गड़ गयी थी। कैसी विडम्बना थी? कैसे कहेगी बड़ी दी से? क्या कहेंगी बड़ी दी और विद्युतरंजन? पाँच महीने तक पन्ना ने किसी से कुछ नहीं कहा। उसकी सपाट छरहरी देह को देखकर, कोई अनुभवी ही शायद उसकी अवस्था का अनुमान लगा सकता था, पर वहाँ अनुभव ही किसे था। उधर माणिक अपने दल-दल को लेकर अजमेर शरीफ़ के उसइ में चली गयी थी। जाने से दो दिन पूर्व दोनों बहनों ने ठनक भी गयी थी। पन्ना के जयपुरी घराने के कल्पक नृत्य की प्रसिद्धि तब दूर-त्र तक थी। माणिक की माँ के एक पुराने मित्र ने फ़रमाइश की थी कि उनके नवासे के मुण्डन में पन्ना अपना वही बहुचर्चित नृत्य प्रदर्शित करे-

'बालम मेरो भोलो रे
मैं किस पर करूँ गुमान'

जिसे देखकर उन्होंने उसे बहुत पहले शुतुर्मुर्ग के अण्डों के-से मोतियों की माला स्वयं पहना दी थी।
पर पन्ना ने जीवन में पहली बार अपनी रौबदार बड़ी दी की आला का उल्लंघन कर दिया, ''नहीं बड़ी दी, इस बार मैं कहीं नहीं नाच सकूँगी, तुम रोशनी को भेज दो।''
''क्या? दिमाग खराब हो गया है तेरा? जानती नहीं कि हमारी साल-भर की रसद-दूध, दही, घी-कहीं से आता है? कितना मानते आये हैं राय काका। आज उन्हीं ने एक सामान्य-सा अनुरोध किया और तू नाच नहीं सकेगी?''
''नहीं बड़ी दी,'' पन्ना गिड़गिड़ाने लगी थी, ''तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझे इस बार माफ़ कर दो, मैं नहीं नाच सकूँगी...''
''क्यों री, तबीयत तो खराब नहीं कर बैठी कहीं?'' बड़ी दी की सन्दिग्ध दृष्टि ने उसके पेट की आंतों का भी जैसे एक्सरे तेकर रख दिया था। काश, पन्ना ने वह सुअवसर नहीं गँवाया होता! बड़ी दी से तब ही खुलासा कर देती तो शायद बात का बतंगड़ न घनता।
''नहीं बड़ी दी, ऐसी कोई बात नहीं है,'' उसने कह दिया था।
''तब? तब क्यों नहीं नाचेगी भला? क्या तेरे आका ने नाचने-गाने की मनाही कर दी है? अगर ऐसी बात है बहन,'' एक लम्बी साँस खींचकर माणिक ने उसे बाँहों में भर लिया था, ''तब तो उससे साफ़-साफ़ कह देना, हमारी अंचलग्रन्थि क्या एक ही पुरुष के चदरे-से बँधी रह सकती है? वह तो हर पल, हर दिन खुल-खुलकर
नये-नये चादर की गाँठ से बँधी रहती है। हम हर चादर की गाँठ के साथ ऐसे ही खिंची चली गयी तो हो चुका!''
पन्ना सिर झुकाकर रोने लगी थी। ओह, तो विद्युतरंजन ने ही मना किया होगा, समझी थी माणिक।
''ग्राहक कितना ही समृद्ध क्यों न हो पन्ना,'' वे अनुभवी मँजे स्वर में कहने लगी थी, ''समझदार दुकानदार क्या उसी एक ग्राहक के भरोसे अपनी दुकान चलाता है? तू कुछ मत कहना, मैं बातें कर लूँगी विद्युतरंजन से। बड़े आये हैं क्रम चलाने वाले। आधी उमर बीत गयी, अब हमें सतवन्ती बनाने चले हैं।'' पर माणिक जितनी ही मीठी वातों से उसे फुसलाती, वह उतनी ही अकड़ती गयी। अन्त में माणिक भी धैर्य खो बैठी। ऐसी निरर्थक विनती-चिरौरी का उसे अभ्यास नहीं था।
''ठीक है'' वे पन्ना के सम्मुख तनकर खड़ी हो गयी थीं।...तुम्हें मेरे साथ रहना है तो रुद्राक्ष की माला जपकर नहीं रह पाओगी। कल ही अपने विद्युतरंजन के साथ चल दो। मैं भी देख लूँगी कैसे वह तुम्हारा अधेड़ अँगूठा पकड़ता है। सत्रह को राय काका के नवासे का मुण्डन है, पन्द्रह को मैं लौटूँगी। तब तक तुम्हें निश्चय कर लेना होगा। या तो तुम मुजरे का बयाना स्वीकार करोगी, या मेरी कोठी खाली कर दोगी। समझी? कोठी किसकी है, तुमसे छिपा नहीं है।'' अपना अन्तिम अचूक बाण मर्मस्थल पर लगा देख, वे अकड़कर अपने कमरे में चली गयी थीं।
कोठी किसकी थी, यह पन्ना बीस साल पहले ही जान चुकी थी। माणिक के राणा पिता ने कोठी बनते ही उसे अपनी पुत्री के नाम कर दिया था। शायद दूरदर्शी राणा बहुत पहले ही जान गया था कि मुनीर पर उसका सर्वाधिकार कभी सुरक्षित नहीं रह सकता। दूसरे दिन तड़के ही माणिक चाबी का गुच्छा छत्र से पटककर चली गयी थी। बड़ी दी को वह खूब पहचानती थी। लाख रूठें, लाड़ली बहन का वियोग क्या उन्हें सह्य होगा? आज तक एक आलाप भी वे क्या उसके बिना ले सकी हैं? फिर बड़ी दी ने उसके लिए क्या कुछ भी त्याग नहीं किया?
ढाका के प्रसिद्ध जमींदार रहमतुल्ला बड़ी दी के दिल्ली दरबार के प्रसिद्ध मुसाहिब थे। मुनीर की मृत्यु के तीसरे ही दिन वे बड़ी दी के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर आये थे और उनके लाख सिर पटकने पर भी बड़ी दी राजी नहीं हुई थीं। विधुर रहमतुल्ला के दर्शनीय व्यक्तित्व, अटूट वैभव और उदार सरल स्वभाव के सहारे बड़ी दी सम्प्रान्त जीवन व्यतीत कर सकती थीं।
''मैं तुम्हें ऐसी जगह ले जाऊँगा माणिक, जहाँ किसी ने अगर तुम्हारी पिछली जिन्दगी का परदा उठाने की कोशिश भी की, तो मैं उसकी आँखें निकाल लूँगा'', उन्होंने कहा था। और ''क्या अपनी आँखें भी निकाल पाएँगे सरकार?'' दुष्टता से मुसकराकर माणिक छोटी बहन के सामने ही रहमतुल्ला की गोद में सिर धरकर लेट गयी थी।

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