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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


काली कुत्सित हीरा दिन-पर-दिन और बदसूरत होती जा रही थी। उसके घुँघराले बाल काले षट्पद के टेढ़े-मेढ़े पैरों की भाँति ही भयावने बने, दिन-रात तेल ठोंकने पर भी इंच-भर नहीं बढ़ पाये थे। चेष्टा करने पर भी मुनीर उसे कभी माँ का प्रेम नहीं दे पायी और शायद इसीलिए वह मातृ-प्रेम-वंचिता शान्त बालिका बुरी तरह हकलाने लगी थी। पन्ना को पुकारने में वह कभी नहीं हकलाती थी, वह उसकी बहन ही नर्ही, एक-मात्र हमजोली भी थी, पर क्रूर-हृदया माणिक को कभी पुकारने का अवसर आता और वह मा-मा-मा कह हकलाती लाल पड़ जाती तो माणिक अपनी रूखी हँसी से उसे बुरी तरह मसल देती,''चुप भी कर कालिया, मा-मा-मा किये जा रही है कल्लो परी!'' पन्ना पलटकर उसका मुँह नोंच लेती, ''तुम्हें शर्म नहीं आती बड़ी दी, अपनी सगी बहन से यह सब कहते।''
''ओ, इनडीड!'' निर्लज्जता से हँस, माणिक अपना सफ़ेद अँगूठा दिखाकर कहती, ''सगी? हम तीनों में से कौन किसकी सगी है, बता तो जरा?''
सगी न होने पर भी माणिक और पन्ना के सर्वथा भिन्न चेहरों में भी आश्चर्यजनक रूप से साम्य था। दोनों की सुतवाँ नाक, उठे कपोल, उठने-बैठने, हँसने और चलने की भंगिमा देखते ही कोई अपरिचित भी बता सकता था कि दोनों बहनें हैं।
अठारह वर्ष में ही माणिक और पन्ना की सौन्दर्य-ख्याति, मृगनाभि की कस्तुरी की गमक-सी छिपाये नहीं छिपती थी। सौन्दर्य के अतिरिक्त दोनों बहनों के सुमधुर कण्ठ का जादू बड़े-बड़े संगीत पारखियों को झुमाने लगा। बचकाने कण्ठ से गायी गयी दुरूह ध्रुपद, धुमार की आड़ी चौगुन लयकारी, उन अनाड़ी विदेशियों को भी मन्त्रमुग्ध कर देती, जिन्हें संगीत की बारहखड़ी तक नहीं आती थी।
मुनीर दोगे पर कड़ी निगरानी रखती थी। प्रत्येक मुजरे में वह स्वयं उपस्थित रहती। मजाल थी कि कोई उन्हें एक बीड़ा पान का तो बिना उसकी अनुमति के खिला दे! अपनी पेशेवर हमजोलियों के नीच स्वभाव पर उसे रत्ती-भर भी विश्वास
नहीं था। क्या पता, क्यों कभी ईर्ष्यावश उसकी कण्ठ की दोनों जादूगरनियों को पान के बीड़े ही में, काँच या पारा पीसकर खिला दें! काम इतना वढ़ गया था कि मुनीर पुत्रियों सहित दिन-रात लाट-कमिश्नर के-से दौरों पर वाहर ही रहती। एक बार ऐसे ही एक तान्तुक़ेदार की पुत्री के विवाह में मुनीर तीनों पुत्रियों को लेकर जा रही थी। इतने वर्ष बीत जाने पर भी पन्ना उस भयावह रात को नहीं भूल पायी थी। सामने आती साइकिल पर सवार, तीन सवारियों को बचाने में, कार में बैठे तीन प्राणियों की आहुति देनी पड़ी थी। राजा साहब का ड्राइवर, मुनीर और हीरा। पलक झपकाते ही सबकुछ हो गया था। कई दिनों तक पन्ना माँ के रक्त से सनी देह, हीरा का खप्पर-सा फटा माथा याद कर, नींद में चौंककर चीख उठती। बड़ी दी उसे अपने पलँग पर खींच छाती से लगा लेती।
''क्यों रोती है पन्ना, अम्मा चली गयी तो क्या हुआ, मैं तो हूँ।'' और सच, बड़ी दी ने कितनी स्वाभाविकता से माँ का आसन ग्रहण कर लिया था। जिस पटुता से उन्होंने अम्मा का व्यवसाय सँभाल लिया, उसे देखकर घाघ कारिन्दे भी दंग रह गये। मुनीर की अनुपस्थिति में दोनों नादान किशोरियों को उँगली पर नचाने की उनकी समग्र योजनाओं पर तुषारपात हो गया। वहाँ तो बित्ते-भर की माणिक, उल्टा उन्हीं को उँगलियों पर नचाने लगी। पुराने ग्राहक, पुरानी दुकान की नयी साज-सज्जा, चमक-दमक, सुरुचिपूर्ण व्यवस्था देखकर परम सन्तुष्ट थे। त्रुटिहीन सेवा के उत्तरोत्तर दाम चुकाने में उन्हें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं थी। यही नहीं कभी-कभी तो अतिथियों की संख्या अकस्मात् ही इतनी बढ़ने लगी कि व्यवसाय-पटु माणिक को अपने विदेशी अतिथियों की परिमार्जित रुचि का विशेष ध्यान रख चीनी, जापानी एवं बरमी परिचारिकाओं की नियुक्ति भी करनी पड़ी। उनके कुटिल मस्तिष्क की कुचालों और दिन-रात की कलह से कभी-कभी पन्ना ऊब उठती, पर माणिक अपनी उन दर्शनीय कठपुतलियों को बड़े चातुर्य से नचाती, उठाती, गिराती रहती। अब वह स्वयं बहुत कम बाहर जाती थी। बड़ी अनिच्छा से पन्ना ही को रियासती यजमानी निभाने इधर-उधर जाना पड़ता।

ऐसे ही एक जलसे में उसका परिचय विद्युतरंजन से हुआ था। युवा विद्युतरंजन इन्दौर के राजकुमार कॉलेज का प्रतिभाशाली छात्र रह चुका था। पिता थे बंगाल की एक छोटी-सी रियासत के राजा, और माँ थी सौराष्ट्र की काठीवश की राजकन्या। विलासी पिता का स्वभाव एवं माँ की अनुपम लम्बी-चौड़ी सुगठित देह ही विद्युतरंजन को विरासत में मिली थी! पन्ना को पहली ही दृष्टि में देखकर विद्युतरंजन मुग्ध हो गये थे। माँ के भय से वर्षो तक प्रणय का आदान-प्रदान लुक-छिपकर ही चलता रहा था। कई महीनों तक वह पीली कोठी में पड़ा रहता, किसी को कानों-कान खबर नहीं
लगने पाती, पर एक दिन न जाने कैसे, दबंग चतुर माँ के छिपे गेस्टापो उसे पकड़ ले गये। रातों-रात, दक्षिण की किसी बड़ी रियासत की साँवली राजकन्या से उसके फेरे भी फिरबा दिये गये। पर नवेली बहू की दक्षिणी आंखें, साँवला-सलोना चेहरा और मां का कठोर अनुशासन भी विद्युतरंजन को बहुत दिनों तक नहीं बांध सका। जहाँ-जहाँ पन्ना जाती, वह उसकी छाया वना घूमता फिरता। कभी-कभी माणिक पन्ना की अल्पबुद्धि पर झुँझला उठती। इस पेशे में भला एक ही व्यक्ति से ऐसे बंधकर काम चल सकता है?
''तेरा प्रेमी तो किसी राजनीतिक दल का नेता भी है ना, री? फिर भी वह क्यों नहीं समझता? उसका और हमारा पेशा तो बहुत कुछ एक ही-सा है?'' माणिक कहती।
विद्युतरंजन बड़ा ही दूरदर्शी व्यक्ति था। वह जान गया था कि एक-न-एक दिन लालमुँहे सत्ताधारियों को सोने की चिड़िया का मोह त्यागकर अपने यूनियन जैक का ही कफ़न ओढ़ना होगा। इसी से उसने विदेशी वेश-भूषा स्वेच्छा से ही त्याग कर, खद्दर के धोती-कुरते का परिधान ग्रहण कर लिया था। पहले दिन वह बगुले के पंख-सी सफेद मोटी धोती, कुरता और जवाहरकट वास्कट पहनकर आया तो माणिक ने उसका उठना-बैठना दूभर कर दिया था।
''लो, सत्तर चूहे खाकर हमारी पन्ना का विल्ला हज करने जा रहा है। मियाँ, ये टोपी तो रहने ही दी होती,'' सारंगी की गज में उसकी नुकीली टोपी को उसने ऐसे लटका लिया था जैसे मरी चिड़िया हो! पर आज उस टोपी ने विद्युतरंजन को महिमामय पद पर पहुँचा दिया था। एक बार की बेल यात्रा उसके लिए स्वर्ग का द्वार बन गयी थी।

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