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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


स्ट्रैची रोड के उस बँगले तक पहुँचने में उसे जैसे पूरा बरस लग गया था। जिस स्टेशन पर गाड़ी देर तक रुकती, वह अधैर्य से 'झुंझला उठता। धीरे-धीरे सामान उतारते अनजान यात्रियों पर उसे ऐसा क्रोध आता, कि धक्का मारकर उन्हें उतार गाड़ी को तेज़ी से भगा ले चले। एक ही सज्जा के, एक क़तार में गमले से सजे बँगलों में आण्टी का बँगला ढूँढ़ने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। फूलदार ऐप्रन का हौदा लगाये छोटी-मोटी मस्त हस्तिनी-सी आण्टी, बरामदे में एक लम्बे बाँस पर झाड बाँध मकड़ी के जाले गिरा रही थीं। उस विराट् शरीर के क्षेत्रफल की गणना से प्रवीर सहम गया। लगता था, बेडौल शरीर का क्षितिज दृष्टि की पकड़ में आ ही नहीं सकता। अनजान होने पर वह बाँस नीचे पटक नाक पर बँधा रूमाल का नकाब खोल ठुमक हँसती प्रवीर का स्वागत करने ऐसे बढ़ आयीं, जैसे उसे बरसों से जानती हों।

प्रवीर का माथा एक बार फिर ठनका। कहीं उसे बुधू तो नहीं बना गयी थी कली ! मेज़बान के इस खिले हँसमुख चेहरे को देखकर तो नहीं लग रहा था कि भीतर कोई मृत्युशय्या पर पड़ी है।

“आइए-आइए, अभी-अभी फल का रस पिलाकर सुला आयी हूँ, वैसे कैप्सूल का असर मुश्किल से पच्चीस मिनट रहता है, वहीं चलेंगे क्या ?"

प्रवीर उसका स्वाभाविक स्वागत देखकर दंग रह गया। यह भी नहीं पूछा कि कौन है, कहाँ से आया है। रिक्शा से ऐसे सामान उतरवा लिया, जैसे वह कोई बहुप्रतीक्षित लुभावना पाहुना हो ! दूसरे ही क्षण वह संकोच से गड़ गया। हो सकता है, कली उसे सब-कुछ बता चुकी हो। “वहीं चलेंगे ना ?'' फिर बिना उसके उत्तर
की प्रतीक्षा किये वह साफ़-सुथरे छोटे कमरों से पथ दिखाती उसे भीतर ले चली। स्थूल शरीर के अनुपात में चीनी सुन्दरियों के से बाँधकर बरबस छोटे बनाये गये उसके छोटे-छोटे पैर लाल मखमली बेडस्लिपरों में बिल्ली के-से पंजे धर रहे थे। प्रवीर का कलेजा धड़ककर मुँह को आ गया। चेहरा पल-भर को लड़कियों की-सी वीड़ा से रँगकर ऐसे लाल पड़ गया, जैसे उस मोटी मेम ने उसकी एक-एक धड़कन सुन ली हो। पलँग पर सो रही कली के सिरहाने धरी कुरसी पर प्रवीर को बैठने के लिए हाथ का मक सन्देश देकर वह फसफसायी_ "यहाँ बैठिए. अभी जग जाएगी। मैं चाय ले आऊँ !'' फिर पल-भर को वह टेढ़ी गरदन कर दोनों को ऐसी मुग्ध दृष्टि से देखने लगी जैसे किशोरावस्था में पढ़े गये अपने किसी प्रिय रोमाण्टिक उपन्यास का सबसे रोचक परिच्छेद दुबारा पढ़ रही हो। प्रवीर कुछ पूछता, इससे पहले ही वह चाय लेने चली गयी। उसे कली के साथ एकान्त में वह क्या जान-बूझकर ही छोड़ गयी थी ? तकिये पर पड़े कमनीय सुप्त चेहरे को प्रवीर ने ध्यान से देखा। क्या सचमुच ही ऐसा घातक रोग-व्याल उस चन्दन-विटप से लिपट गया होगा ?

गुलाबी नाइटी की लेस ने देवदूत-से निष्पाप चेहरे को पंखुड़ियों-सा घेर लिया था। विषम ज्वर की व्यथा ने ही उसे शायद घिसकर रख दिया था। लग रहा था कोई दस-बारह साल की अबोध बालिका थककर सो रही है।

नन्हें वक्षस्थल पर धरी दो दुर्बल कलाइयाँ उठ-उठकर प्रकम्पित श्वास-निःश्वास के साथ-साथ गिर रही थीं।

प्रवीर कुछ ही महीनों पूर्व पवित्र अग्नि को साक्षी बनाकर लिये गये सातों फेरों की शपथ भूलकर रह गया। नदी की कच्ची कगार पर खड़ा विवेकविटप भरभराकर नीचे गिर पड़ा। क्या पता, इस अमूल्य एकान्त का अचानक ही अवसान हो जाये। वह झुका और कानों के पास मुँह सटाकर पागल की भाँति पुकारने लगा-"कली, कली !" पर वह नहीं जगी।

किसी शक्तिशाली कैप्सूल प्रदत्त अस्वाभाविक प्रगाढ़ निद्रा में डूबी कली के क्यूपिड अधर मन्द स्मित में खिंच गये। क्या कोई मीठा सपना देख रही थी वह ?

कभी उसके क्षुधातुर अधर ऐसे ही प्रवीर के रूखे कर्णमूल का स्पर्श कर प्यासे ही लौट गये थे। आज शायद इसी से वह उसे याचक बनाकर अपना प्रतिशोध ले रही थी। इस बार प्रवीर का चेहरा ठण्डे रोगजीर्ण चेहरे से सट गया। कली हिली, चौंककर छाती पर निश्चेष्ट पड़ी दुर्बल कलाइयों ने प्राणाधिक चेहरे को धड़कती कनपटी के पास खींच लिया। "मैं जानती थी, तुम आज आओगे।" फिर वह तकिया खिसकाकर बैठने ही लगी थी कि समझदार आण्टी खाँसती-खखारती दूर से ही अपनी फायर-ब्रिगेड उपस्थिति का घण्टा एलार्म टनटनाती चली आयी थीं।

प्रवीर सँभलकर अलग हो गया. पर कली ने हाथ नहीं छोडा, वह अपनी दबली पकड़ में उस पुष्ट कलाई को ऐसे कसकर साध रही थी जैसे छूटते ही वह हाथ से
छिटक जाएगी।

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