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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


"सोच रहे होंगे कि जा रही थी लंका और पहँच गयी इलाहाबाद ! सीता को क्या स्वयं रावण कभी लौटा सकता है ? मुझे भी वह लौटा लाया जिसने रावण के दस मुण्ड चुटकियों में मसलकर रख दिये थे। अब मैं नास्तिक नहीं हूँ 'के' ! अम्मा के साथ मन्दिर भी जाती हूँ। एक महीने से अम्मा भी यहीं हैं। गयी थी यही सोचकर कि सब नाते-रिश्ते तोड़कर कभी वापस नहीं लौटूंगी, पर सिर मुड़ाते ही ओले पड़ गये। ट्रेन में मिल गयीं तानी मौसी और उनके ऐसे सिद्ध स्वामी, जिन्हें देखकर शायद तुम भी चलती ट्रेन से कूद पड़ते या क्या पता शायद वे ही तुम्हें देखकर कूद जाते! पता नहीं क्यों, उनकी बातों में मुझे तुम्हारे गृह-कलंक की दुर्गन्ध आयी। चटपट एक अनजान स्टेशन पर उतर गयी। सोचा था, दूसरी गाड़ी से चली जाऊँगी। किया भी यही, पर एक ही मारात्मक भूल कर बैठी। जिस गाड़ी में चढ़कर बैठ गयी, उसके कलमुँहे इंजन का मुँह किधर है, यह नहीं देखा, बड़ी देर बाद समझ में आया, जिन स्टेशनों की सीढ़ियाँ चढ़ती कुछ घण्टे पहले गयी थी, उन्हीं सीढ़ियों से एक बार फिर नीचे उतर रही हूँ। तब क्या विधाता मुझे जान-बूझकर कलकत्ता खींच रहा था ? हड़बड़ाकर चन्द्रनगर में उतर गयी। जब लौरीन आण्टी की नौकरी में थी, तब मेरा यही महत्त्वपूर्ण हेडक्वार्टर था। लौरीन आण्टी का भाई सिम्पसन वहीं रेल विभाग में डीलक्स ड्राइवर था। वहाँ पहुँची तो स्नेही दम्पती ने मुझे बड़े प्यार से रोक लिया। कभी उनके आतिथ्य का मैंने एक-एक भारी गोल्ड-बार देकर मूल्य चुकाया था, इस बार खोखली हूँ, यह शायद उन्होने भी समझ लिया। इसी से आतिथ्य की पकड़ कुछ-कुछ ढीली पड़ने लगी। तीसरे ही दिन मुझे बुखार आ गया, फिर सर्वांग में असह्य पीड़ा। मिसेज़ सिम्पसन को भय था, मुझे कहीं चेचक न हो। उनके पास-पड़ोस में महामारी मत्त नर्तन कर रही थी। पर मेरी महामारी उससे कहीं अधिक भीषण निकली। मुझे न जाने किस इंट्यूशन ने चौकन्नी कर दिया। यह पीड़ा और ऐसा मदहोश बनाने वाला विषम ज्वर साधारण नहीं हो सकता। लगता था, एक बार फिर तुम्हारी बाँहों में जबरन सिमट गयी हूँ। और पूरी देह दहकने लगी है। तुम्हें एक बार फिर देखना चाहती हूँ। जानते हो क्यों ? इस बार मैं ससुराल जा रही हूँ। अब तुम्हारी थैली के मेवे छीनकर नही खाऊँगी। क्या एक बार आ पाओगे ? मूखे डाक्टर सोचते हैं, मुझे कुछ पता नहीं है, पर बम्बई के टाटा कैन्सर अस्पताल में लोग हनीमून मनाने नहीं जाते, इतना मैं भी जानती हूँ। कुछ ही महीनों में, मुरब्बे के लिए गोदे गये आँवले-सी ही गोद दी गयी हूँ। कभी मेरी हड्डियों से मज्जा कुरेदकर और कभी पानी बन रहे मेरे निर्दोष रक्त को सिरिंज से खींच डॉक्टर जब देखने लगते हैं, तो मुझे हँसी आती है। ठीक जैसे कोई चतुर ग्राहक बेईमान ग्वाले के दूध की जाँच कर रहा हो
कि कितना पानी मिलाया गया है। मेरे ग्वाले ने मेरे जन्म से पहले ही दूध में पानी मिला दिया था, यह कोई नहीं जानता। पर क्या शानदार बीमारी है। मिनटों में बीमार को शहीद बनाकर रख देती है। जहाँ से निकली हूँ, वहीं लोगों की आँखों में 'मिल्क ऑफ ह्यूमन काइण्डनेस' छलकने लगता है, जैसे अर्थी में बँधी कोई जवान लाश निकल रही हो।

"मैं जानती हूँ तुम आओगे, क्योंकि बीच-बीच में मुझे लगता है, मैं एक बार फिर अपने आरण्यक में पहुँच गयी हूँ। मेरा सिर तुम्हारे घुटने पर टिका है और मेरे सिर पर धरा तुम्हारा हाथ काँपने लगा है।

"प्रयाग स्टेशन पर उतरना, जंक्शन पर नहीं और फिर किसी भी रिक्शावाले से कहना तुम्हें ईसाई टोले की मोटी मेम के यहाँ जाना है। तुम्हें पहुँचा देगा।"

लम्बी चिट्ठी के अन्त में किसी का नाम नहीं था।

प्रवीर की गाड़ी आकर कब की जा भी चुकी थी। कुछ देर तक वह चिट्ठी हाथ में लिये बुत सा खड़ा ही रहा, फिर दृढ़ क़दमों से टिकटघर की ओर बढ़ गया।

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