नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
आण्टी ने हाथ की ट्रे छोटी मेज़ पर
धर प्रवीर के सामने खिसका दी। उनके
लज्जा से लाल पड़ गये चेहरे को कली
ने देख लिया।
"तुम तो ऐसे 'ब्लश' कर रही हो
आण्टी, जैसे यह मेरा नहीं, तुम्हारा
प्रेमी हो।" तकिये के सहारे बैठकर
वह हँसती आण्टी को छेड़ने लगी।
प्रवीर संकोच से गड़ गया। क्या ऐसे
विषधर रोग-भुजंग की जकड़ में भी वह
हास-परिहास नहीं छोड़ सकी थी !
“आण्टी के बनाये मोरेंग नहीं लोगे
क्या ? धरते ही मुँह में ऐसे गल
जाते हैं, जैसे किसी किशोरी का
चुम्बन !"
हँसकर उसने एक मोरेंग लपककर मुख में
धर लिया। आण्टी रुआंसी हो गयीं।
"देख रही हो सनी, दिन-रात ऐसा ही
बचपना कर मुझे रुलाती रहती है यह
लड़की ! मीठा इसे एकदम मना है, फिर
आज सुबह से यह इसका तीसरा मोरेंग
है। मैं तो बनाती भी नहीं, पर..."
आण्टी रुक गयीं, कुछ कह नहीं सकीं,
गला रूंधकर रह गया।
"कहो-कहो, कह डालो ना," कली की बड़ी
आँखें क्या उस घातक रोग ने ही कानों
तक खींचकर और बड़ी कर दी थीं ? काली
भँवर-पुतलियों में बचकाना चुहल की
रंग-बिरंगी तरंगें उठ-उठकर गिरने
लगीं।
“मैंने ही ज़िद की थी आज," वह
अँगुलियाँ चाटती दूसरा मोरेंग उठाने
लपकी, पर आण्टी ने चट से प्लेट उठा
ली, “आण्टी, बनाओ मोरेंग। नहीं
बनाये और इसी बीच में कहीं चल दी तो
अपनी कब्र में फिर चैन से नहीं सो
पाऊँगी। बस यही बन्दर-घुड़की काम कर
गयी। पर वाह, बढ़िया 'बेक' किये हैं
! उस लोक में भी कभी शाही दावत हुई
और लोक के खानसामे के
'क्रेडेनशियल्स' माँगे गये, तो
तुम्हें 'रिकमेण्ड' कर जल्दी वहाँ
बुलवा लूँगी।"
क्षण-भर पूर्व आण्टी के बचकाने
चेहरे पर उभर आयी विषाद की बदली छंट
गयी। यह हँसने-हँसानेवाली लड़की
क्या उन्हें कभी रोने देती थी ?
"सुन रहे हो इसकी बातें ? दूसरा
प्याला दूँ सनी ?" आण्टी मोटी कमर
पर शिथिल ऐप्रन का तम्बू तानती फिर
चाय बनाने झुक गयीं।
"ऐ आण्टी, अम्मा फाफामऊ से नहीं
लौटीं क्या ?''
"नहीं, आती ही होंगी।"
“अच्छा, तब सुनो, जब तक अम्मा नहीं
आतीं, तुम भी कहीं घूम आओ ना !" वह
सर्र से तकिये पर सरक गयी।
उस दुस्साहसी लड़की की स्पष्टवादिता
एक बार फिर प्रवीर को रसातल में
खींच ले गयी। क्या सोचती होंगी यह
अपरिचिता महिला। “आप बैठिए ना, मैं
हाथ-मुँह
धो आऊँ।"
प्रवीर उस अपदस्थ हो गयी सरला महिला
के प्रस्थान-प्रस्ताव को टालने
स्वयं उठ गया। 'बैठो, सिली," कली ने
हाथ पकड़कर इस बार फिर करसी पर बिठा
दिया।
"हाथ-मुँह फिर भी धोया जा सकता है
मुर्ख !" वह फसफसाकर कहने लगी, "एक
बार अम्मा आ गयीं तो समझ लो जेलर आ
गया, यह एकान्त फिर नहीं जुटेगा।
जाओ तो आण्टी, 'बी ए ब्रिक' कुरसी
डालकर बरामदे में अपनी क्रॉसस्टिच
बनाती रहो। अम्मा के आते ही खाँसी
का छोटा-सा सिगनल दे देना, बस।''
हँसती आण्टी हाथ में ट्रे लिये एक
बार फिर नवोढ़ा षोडशी-सी लजाती लाल
पड़ती बाहर चली गयीं।
“देखा ?'' वह हँसकर बाँह पकड़ पालतू
बिल्ली-सी प्रवीर के कन्धे से गाल
घिसती सट गयी।
"चतुर बन्दी ऐसे ही द्वार पर पहरा
देते सिपाही को अपने षड्यन्त्र में
मिलाता है।" कन्धे तक झूलते
केश-गुच्छ अब बीमारी में और लम्बे
होकर नीचे तक लटक
आये थे।
“पहले एक बात बता दूँ, आण्टी सब
जानती हैं। मैंने ही उन्हें सब कुछ
बतला दिया था, पर अम्मा अभी कुछ
नहीं जानतीं। तुम्हें देखते ही सब
जान लेंगी।
"अम्मा और आण्टी में यही अन्तर है।
आण्टी को मैं न बतलाती तो उनकी
बच्ची-सी निष्कपट आँखें तुम्हें
मेरी बाँहों में देखकर भी शायद यही
सोचतीं कि मेरा बिछुड़ा भाई-भतीजा
है, पर अम्मा सब-कुछ जान लेती हैं।"
वह कुछ देर तक चुप रही जैसे थक गयी
हो, फिर रुक-रुक कहने लगी, “मैंने
जान-बूझकर ही अम्मा को अपनी बीमारी
की खबर दी ! सोचा, जब जाना ही है तो
क्यों न सबसे हाथ मिलाकर ही जाऊँ।''
हँसकर कली ने प्रवीर का हाथ गालों
से सटा लिया। क्या निमग्न कपोलों के
गहरे गढ़े और भी गहरे हो गये थे ?
कैसा आश्चर्य था कि ऐसे घातक रोग ने
काया को घिसकर, आकर्षक चेहरे को कुछ
ही महीनों में और भी आकर्षक बना
दिया था !
"अम्मा से मैंने क्यों नहीं कहा,
जानते हो ? मुझे लगा उनसे कहूँगी,
तो मन ही मन कहेंगी देखा ना, हार
गयी छोकरी ! मेरी खिल्ली उड़ाती थी,
आज खुद ही ठोकर खा गयी ! पत्नी के
लिए, मानव-प्रतिष्ठा के लिए, उनका
प्रेमी उन्हें अंगूठा दिखा गया और
मेरा प्रेमी..."
वह फिर आँखें मूंदकर बाँह से सट
गयी।
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