नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
प्रवीर को सिनेमा चलने के लिए
कुन्नी परदे से झाँक-झाँककर तीन बार
बुला गयी थीं, पर पाण्डेजी रंग में
आ गये थे।
"शालीन कपड़े पहन, आँखें झुकाकर
चलने वाले नम्र राहगीर को अब कोई
नहीं देखता, पर सड़क पर लेटकर नारे
लगा प्रधानमन्त्री की गाड़ी रोकने
वाला नंगा निर्लज्ज व्यक्ति पल-भर
में प्रधानमन्त्री से भी अधिक
प्रसिद्धि पा लेता है, क्यों ?
इसीलिए कि अब इस निराले प्रजातन्त्र
में न्यसैन्स वैल्य बढ़ गयी है। मैं
सोचता हूँ, तुम सब समझ गये
होंगे—“विश यू ए वेरी-वेरी ब्राइट
फ्यूचर,'' उन्होंने हँसकर जामाता के
दोनों हाथ पकड़कर झुक-झुककर ऐसे
हिला दिये थे, जैसे कोई चतुर
व्यवसायी अपने नये-नये नियुक्ति हुए
सेक्रेटरी का स्वागत कर रहा हो। उस
दिन श्वसुर से ही नहीं कुन्नी से भी
प्रवीर को विदा लेकर अकेले ही लौटना
पड़ा। एक दिन के लिए मायके गयी
कुन्नी भी दुर्भाग्यवश पैर मुचकाकर
वहीं रुक गयी थी। पति को स्टेशन तक
पहुँचाकर अश्रुसिक्त प्रथम विदा
देने का उसका स्वप्न अधूरा ही रह
गया।
प्रवीर समय से कुछ पूर्व ही स्टेशन
पहुँचकर पत्रिका लेने बुक स्टाल पर
खड़ा हो गया था, अचानक किसी ने पीठ
पर हलकी दस्तक दी। वह चौंककर मुड़ा।
"बड़ी देर से तुम्हें शैडो कर रही
थी।"
कुछ-कुछ पहचानी पकड़ में आ रहे
चेहरे को प्रवीर ने गौर से देखा,
कौन थी वह उसे शैडो करने वाली ?
लिपस्टिक से रंगे होंठ के बीच दाँत
में ठुकी सोने की कील ने
स्मृति-द्वार का जंग लगा ताला सहसा
खोल दिया। श्वसुर-गृह में पहली बार
मिली पाण्डेजी की गर्लफ्रेण्ड
लौरीन, कली की लौरीन आण्टी। प्रवीर
चौंका, यहाँ क्या करने आयी थी खूसट।
कहीं पाण्डेजी ने ही उसे किसी
स्मगल्ड पैकेट की दूती बनाकर तो
नहीं भेजा था ? "कुछ देर तो पाण्डे
तुम्हारे साथ थे, डर रही थी कि
गाड़ी छूटने तक ही तुम्हें 'सी ऑफ'
न करता रहे ! पर उसका भी प्रबन्ध कर
लिया था मैंने। तुम्हारे साथ चलने
के लिए टिकिट भी ले चुकी थी। वैसे
'इफ आई नो', पाण्डे गाड़ी छूटने तक
खड़ा रहे, ऐसा 'पेशेन्स' उसमें नहीं
है। लो...' कह एक मोटा लिफ़ाफ़ा,
उसने प्रवीर का लटका हाथ एक प्रकार
से खींचकर थमा दिया। आश्चर्य से
प्रवीर गूंगा-सा बन गया पर आँखों ही
आँखों में उसने पूछ लिया, 'कैसा
लिफ़ाफ़ा दे रही हैं यह ? किसका
है?' लेकिन वह रहस्यमय चेहरा क्या
मदाम टुसौड्ज का बनाया मोम का चेहरा
बन गया था ? उस निर्जीव चेहरे की एक
भी दुरूह रेखा प्रवीर के पल्ले नहीं
पड़ी। उसे चिट्ठी थमाते ही वह तेज़ी
से अपनी ऊँची एड़ियाँ खटकाती स्टेशन
के मुण्डमेले में ऐसी विलीन हो गयी,
जैसे कोई व्यस्त डाकिया हो। पता
पढ़कर पाने वाले को पत्र थमाना ही
शायद उसका काम था, पत्र किसका है,
कहाँ से आया है—यह सिरदर्द कहीं
डाकिया मोल लेता है ?
गाड़ी आने में देर थी। बुक स्टॉल के
ऊँचे तख्त पर टेक लगाकर उसने
लिफ़ाफ़ा खोल लिया। नाम तो उसी का
था। सुन्दर गोल लिखावट के साथ ही
परिचित मन्द-सुगन्ध गले में बाँहें
डालकर झूल गयी।
"के !"
"तुमने काबुल छोड़ दिया है ना, इसी
से लम्बा नाम अब मैंने छोटा बना
लिया है।"
“लौरीन आण्टी के लिए मैंने कभी बहुत
भारी गोल्ड-बार स्मगल किये हैं,
मेरी इस हलकी चिट्ठी को वह निश्चय
ही आसानी से स्मगल कर तुम तक पहुँचा
देंगी। घबरा रहे हो कि कहीं बीच में
ही चिट्ठी पढ़ न डालें, तुम्हारे
पाण्डेजी की मित्र हैं ना
वह ! पर ऐसी नहीं हैं मेरी लौरीन
आप्टी ! हर इतवार को गिरजाघर जाती
हैं। उस दिन शरीर और आत्मा दोनों को
शुद्ध रखती हैं आण्टी ! कुछ बातों
में पक्की क्रिश्चियन हैं वह, और
सच्चा क्रिश्चियन कभी स्लाई नहीं
होता।
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