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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


तेईस


क्यों बार-बार यह पंक्ति अबाध्य चित्त दोहराने लगता था—'तन्वंगी गजगामिनी चपलदृक् संगीतशिल्पान्विता' ! ठीक ही कहा था उसने। चदरे की गाँठ में दूसरी गाँठ

लग जाये तो चौंकना मत, मैंने मसान साधा है, मैं सब कुछ कर सकती हूँ। पार्श्व में सोयी कुन्नी का नींद से ढुलकता माथा उसके कन्धे से लग जाता, तो नारी-देह के परिमल से उसके नथुने फड़कने लगते। प्रेतलोक में भटकती अतृप्त आत्मा-सी एक
और भूली-बिसरी सुगन्ध उसके दूसरे कन्धे पर सिर रख देती। अन्धकार में ही उसका हाथ घुटनों तक टिके उस प्राण विक चेहरे पर बिखरे बालों को सहलाने शून्य में फैला का फैला ही रह जाता। "धन्य है हिन्दू जाति, जो मरे को भी पानी देती है, एक तू है जो ज़िन्दा..." वह हड़बड़ाकर उठ बैठता।

“ऐसे क्यों चौंककर बैठ जाते हो जी आधी रात को !" कभी कन्नी झंझलाकर टोक देती। “मुझे भी डरा दिया। नींद में चलने की आदत तो नहीं है ?''

प्रवीर चुपचाप लेट जाता। नींद में चलने की जिसे आदत थी, वह तो सामना बुलिस्ट बनी बड़ी दूर चली गयी थी।

एक बार और कुन्नी ने ऐसे ही फटकार दिया था। हनीमून के नये जोड़े को पाण्डेजी के मित्र मि. कौल ने अपनी कार थमा दी थी। प्रवीर स्वयं ड्राइव करता लौट रहा था दिन-भर फूल-केसर की घाटियों में घूम कर। सुगन्ध से लिपटी कुन्नी पति के पार्श्व में बैठी मीठे स्वर में गुनगुना रही थी। सिर पर बँधा रेशमी स्कार्फ उतारकर उसने खिड़की खोल दी थी। पहाड़ी हवा का एक धृष्ट झोंका आकर उसके चेहरे पर बालों का गुच्छे का गुच्छा फैला गया था। जंगली घाटी के वनफूलों की सुगन्ध से मत्त बनी मयूरी, सहसा नवीन सहचर के अमानवीय गाम्भीर्य को चुनौती देने, बिजली की तड़प से मूड़, कील पर धरे दो चौड़े पंजो पर झुक गयी थी। हवा में उड़ती चंचल अलकावलि दोनों हाथों पर फैल गयी, क्षुधातुर तप्त अधरों के स्पर्श ने जैसे प्रवीर के हाथों पर दहकते अंगारे धर दिये, ऐसे ही एक बिखरे केश-गुच्छ और हिमशीतल अधरपुट की स्मृति उसके दोनों हाथ कँपा गयी। पल-भर को उसे लगा कि वह सन्तुलन खो बैठा है। गाड़ी ऐसे दायें-बायें जाने लगी, जैसे किसी अनाड़ी नौसिखिये चालक के हाथ में पड़ गयी हो। वह तो शायद दानव-से खड़े चिनार के वृक्षों से टकराकर चकनाचूर हो जाती। कुन्नी ने उसे बुरी तरह फटकार दिया था।

"क्या हो गया है आपको ? अभी गाड़ी टकरा दी थी, ठीक से चलाइए ना...''

प्रवीर बड़ी देर तक गुमसुम बना रह गया था। उसी की मधुर मुद्राओं को कुन्नी दुहरा कैसे लेती थी ? क्या वह किसी सतर्क पेशेवर गुप्तचर के छल-बल से विवाह से पूर्व भी उसके पीछे अदृश्य छाया बनी घूमती रही थी ? कभी-कभी वह अपने चतुर प्रश्नों से किसी घाघ क्रिमिनल लॉइर की ही दक्षता दिखा उसके चित्र को अपराधी बनाकर कटघरे में खड़ा कर देती और उसे लगता कि अपने लुभावने यौवन का उत्कोच देकर वह उसे देखते ही ऐप्रूवर बना लेगी। एक बार तो वह महामूर्खता कर
ही बैठा था।

"क्यों जी...'' आधी रात को वह उसके गले में अपनी सुडौल बाँहें डालकर लिपट गयी थी, “आप इतने दिनों तक क्या सचमुच ही कुँआरे रहे ? मैं मान ही नहीं सकती कि आप जैसे सुदर्शन पुरुष को देश-विदेश की आधुनिकाओं ने ऐसे ही छोड़ दिया हो !"

शायद उस रात को वह दुस्साहसी दुरन्त किशोरी के अभिसार की बात उगल ही देता, पर उसी क्षण उसी अदृश्य छाया ने लपककर उसका मुँह बन्द कर दिया था— 'मूरख कहीं के, ऐसी बातें सुनने पर क्या संसार की कोई भी पत्नी पति को क्षमा करेगी ?' उसी दिन से प्रवीर सँभल गया था।

दिल्ली जाने से पहले पाण्डेजी ने दामाद को एकान्त में बुलाकर कई छोटे-मोटे अनुभूत घरेलू नुस्खे थमा दिये थे। “कभी-कभी सोचने लगता हूँ कि तुम्हें दिल्ली बुलाकर मैंने ठीक नहीं किया।" वे चिन्तित स्वर में कहने लगे, “देश की हालत तो देख ही रहे हो। अब किसको राजसिंहासन से नीचे घसीटकर हाथ में झाडू थमा दें, ठीक नहीं। प्रजातन्त्र अब शासक वर्ग के लिए सजातन्त्र होकर रह गया है। सोचा, चलने से पहले तुम्हें सावधान कर दूँ। ज़माना अब ऐसा आ गया है कि आईन—कानून उठाकर ताक में धर ही राजदण्ड सँभालना होगा। तुम तो खुद ही समझदार हो, पर इतनी सीख हमारी भी गाँठ बाँध लो। विशुद्ध कर्मकाण्डी अफ़सरशाही का युग अब बीत गया है। अँगरेज़ों के शासनकाल में सिफ़ारिश की भी जाती थी तो उसमें भी एक शान रहती थी, और अब ? उसी दिन मेरा एक पुराना दोस्त मिला, ऊँचे विभाग का ऊँची कुरसी पर बैठनेवाला बड़ा ऊँचा अफ़सर ! कह रहा था कि अब तो एक चपरासी की बदली के लिए भी मन्त्री गिड़गिड़ाने लगे हैं। जितने स्तर की बेहूदगी की जाएगी, उतना ही ऊँचा फल मिलेगा।"

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