नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
कुन्नी सास के पास से उठकर पति के पास
चली आयी। कुछ ही दिनों में वह उस
अपरिचित व्यक्तित्व व्यक्ति के
पीछे-पीछे किस अदृश्य जादुई डोर से
बँधी घूमने लगी थी, वह स्वयं ही नहीं
समझ पा रही थी। एक पल भी वह उसे
छोड़कर इधर-उधर जाता तो वह व्याकुल हो
उठती। कई बार डैडी का फ़ोन आ चुका था।
मुन्नी दी ने तो फ़ोन ही पर उसे खूब
कोरी-कोरी बातें सुना दी थीं—“अच्छी
ससुराल की माया उपजी है तुझे, हम
पराये हो गये। कैसा पत्थर कलेजा है
तेरा ! डैडी कुन्नी-कुन्नी कर पगला
रहे हैं, और तू ऐसी हनीमुनिया गयी कि
झाँकने भी नहीं आयी!"
"बृहस्पति को पहाड़ में बिटिया विदा
नहीं होती, कल जाएगी तो वहाँ से आ
नहीं पाएगी, परसों शुक्र को चली
जाना," कह अम्मा ने रोक लिया।
मायके तो वह अब कुछ दिन रहेगी ही पर
इतवार को प्रवीर दिल्ली चला जाएगा।
पति का क्षणिक विछोह भी उसे बहुत अखर
रहा था। डैडी के किसी मित्र के फ़्लैट
में ही फ़िलहाल प्रवीर एक कमरा पा गया
था। निजी आवास मिलने पर ही वह कुन्नी
को अपने साथ ले जा सकता था। अपने
निरंकुश जीवन के विपरीत, हनीमून की
भागदौड़, दावतों, आत्मीय सम्बन्धियों
की बधाइयों के एक-से पत्रों ने उसे
उबा दिया था। जिस कुन्नी को उसने
मायके में बहुत कम बोलते देखा था, वही
अब कभी-कभी
अपनी बकर-बकर से उसका दिमाग़ चाट
जाती।
"क्यों जी, आपकी टेनेण्ट ने क्या
सचमुच आपको इम्प्रेस नहीं किया ? आप
तो कभी भी उसके लिए कुछ नहीं कहते,
उधर अम्मा-माया को तो लगता है उसने
जादुई डण्डी फिराकर मोह लिया था। अपनी
शादी तक रोक क्यों नहीं लिया उसे ?
मैं भी देख लेती..."
प्रवीर का माथा ठनका। कहीं उस उत्पाती
लड़की ने इसे कुछ लिख-विख तो नहीं
दिया। वह सब कुछ कर सकती थी।
"वैसे मैंने भी उसे दो बार देखा है।"
वह पति के पास ही दोनों कुहनियाँ
टेककर अधलेटी मुद्रा में सरक आयी।
"एक बार फैशन-परेड में मुन्नी दी के
लिए एक बालिका का स्टोल लेना था।
सचमुच ही लड़की में कुछ सम्मोहिनी थी,
सामान्य-से बातिक के सवा-दो गज़ के
रेशमी टुकड़े को कन्धे पर डालकर ऐसे
मुसकराती सामने से निकल गयी थी कि
मुन्नी दी ने मुग्ध होकर सौ रुपये में
धेले-भर का स्टोल खरीद लिया। दूसरी
बार मिली थी एक सिनेमा-हाउस में। साथ
में तीन-चार हिप्पी छोकरे और एक
विदेशी छोकरी थी। डैडी भी हमारे साथ
थे, मुन्नी दी ने डैडी से कहा कि वह
मेरी ससुराल में रहती है, तो डैडी को
विश्वास ही नहीं हुआ कहने लगे, 'मैं
मान ही नहीं सकता। कुन्नी की ससुराल
के लोग है संस्कारी पण्डित, वहाँ भला
यह धींगड़ी कैसे रह सकती है' ?"
क्या जान-बूझकर ही कुन्नी उसे छेड़
रही थी ? प्रवीर ने अपनी छाती के पास
खिसक आये चेहरे को ध्यान से देखा, उन
आँखों में न व्यंग्य था न ईर्ष्या।
तब, क्या स्वयं प्रवीर के मन का चोर
ही बार-बार कान खडे कर रहा था ? फिर
आज तो कृष्णकली की स्मृति को बार-बार
कुरेदा जा रहा था। आज, न हो इसी से न
चाहने पर भी वह शैतान चेहरा
स्मृति-पटल पर उभर रहा था, पर इन तीन
महीनों में आनन्द, आमोद-प्रमोद, उत्सव
और घुमक्कड़ी के बीच किसने भला उसकी
स्मृति को कुरेदा था? फिर क्यों पत्नी
के मधुर बाहुपाश को चीर वह अदृश्य
प्रेतछाया उसकी छाती से लगकर कुन्नी
को नित्य दूर ठेल देती थी ?
बाँहों में कुन्नी को लिये ही वह किसी
की स्मृति में डूबकर रह जाता था ?
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