नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
|
16660 पाठक हैं |
हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"देखिए, यह मैं नहीं लूँगा," प्रवीर
ने जेब से चेक निकालकर उन्हें लौटा
दिया। ये शायद फिर उसी तरह उसकी जेब
में ठूस देते पर प्रवीर का गम्भीर
चेहरा देखकर सहम गये। इस दम्भी दामाद
की गरदन शायद वे कभी अपने अन्य
जामाताओं की गरदन की भाँति अपने वैभव
के बोझ से नहीं दबा पाएँगे। इतना चतुर
पाण्डेजी उसी क्षण समझ गये। चेक
उन्होंने आँसू पोंछती कुन्नी को थमा
दिया।
"तेरा दूल्हा तो कन्धे पर हाथ ही नहीं
धरने देता, इसे तू रख ले। मेरी राय
में तुम लोग श्रीनगर ही घूम आओ।
कश्मीर में मेरे कुछ परिचित अफ़सर
हैं, उन्हीं को लिख दूँगा। नैनीताल तो
बड़ी कॉमन जगह हो गयी है। जिसे देखो
वही नया ट्रांजिस्टर लटकाये हनीमूनर
बना फिर रहा है। फिर हमारी आधी
रिश्तेदारी वहीं है। तुम दोनों को सब
बारी-बारी से खाने पर न्योतेंगे और
पहाड़ी रसमात खिला-खिलाकर तुम्हारा सब
हनीमून चौपट कर देंगे।" प्रवीर को यह
सब अँगरेज़ियत पसन्द नहीं थी। छोटा
भाई था शौकीन, विवाह हुआ तो नयी बहू
को लेकर मसूरी, शिमला, नैनीताल न जाने
कहाँ-कहाँ घुमा लाया था, पर प्रवीर की
इच्छा न होने से क्या होता कुन्नी के
सलज्ज आग्रह को वह नहीं टाल सका था।
"क्या आप सचमुच कहीं नहीं चलेंगे ?
अच्छा बोर किया आपने।" उसका सुन्दर
चेहरा लटक गया था।
“ज़रा सोचिए तो, डैडी को कैसा लगेगा ?
उन्होंने मि. कौल को लिखकर शायद कमरा
भी बुक करवा लिया है। यह भी अच्छी रही
! विवाह के पहले भी कलकत्ता
और बाद भी वही कलकत्ता, इससे
बिनब्याही ही भली थी ! सब फ्रेण्ड्स
पूछेगी कि हनीमून के लिए कहाँ जा रही
हो, तो क्या कहूँगी—बताइए ज़रा !"
दिन-रात प्रवीर को कुन्नी यही समझाती
रही कि उसके समाज में विवाह के सात
फेरों से भी अधिक महत्त्व हनीमून का
है। जब तक नया जोड़ा हनीमून की हज
करके न लौटे, हाजी नहीं कहला सकता।
उसकी दलीलों से पराजित होकर प्रवीर को
नयी पत्नी सहित कलकत्ता छोड़ना पड़ा।
दस-पन्द्रह दिन घूम-घामकर दोनों लौटे,
तो जया, माया जा चुकी थीं। दामोदर को
कठिनाई से दुबारा मिली नौकरी और स्वयं
अपने गलग्रह की मुक्ति के लिए जया को
श्वसुरकुल के ग्राम-देवता की पूजा
देनी थी। माया के देवर का विवाह था।
उसके रुकने का प्रश्न ही नहीं उठता
था। “अच्छा हुआ, तुम दोनों जल्दी लौट
आये," अम्मा बेटे-बहू को समय से पूर्व
ही लौटा देखकर प्रसन्न हो गयी थीं।
"इतने बड़े घर में मैं फिर अकेली रह
गयी हूँ। रहती तो हमेशा ही अकेली थी,"
अम्मा कुन्नी से कह रही थीं, “इसी बार
जया इतने दिनों रह गयी और फिर कली और
आदत बिगाड गयी।" कन्नी सास के सिर में
तेल ठोक रही थी। उसके इन्हीं गुणों पर
अम्मा दो ही दिन में मुग्ध हो गयी
थीं। इतने बड़े घर की बेटी
थी, पर जहाँ अम्मा कुछ काम करने
लगतीं, चट से उनके हाथ से काम छीनकर
कुन्नी स्वयं करने लगती। उस दिन भी
अम्मा कंघा लेकर चोटी करने बैठी तो
कुन्नी ने उनके हाथ से तेल की शीशी
छीन ली। “एक दिन ऐसे ही चोटी करने
बैठी तो न जाने कहाँ से आँधी-सी आ गयी
कली," अम्मा कहती जा रही थीं, "हमेशा
आँधी-सी ही आती थी लड़की ! बस, आयी और
आते ही कंघा छीन लिया। कभी कहती,
अम्मा आज तुम्हारा ऐसा जूड़ा बनाऊँगी,
कभी कहती, वैसा। मरी, बच्चियों से भी
छोटी बच्ची बन जाती थी कभी। डेढ़ सौ
की साड़ी पहनकर एक दिन चौके के बिना
बिछे फ़र्श पर फडाक से बैठ गयी।
ग्यारह सौ तो तनख्वाह ही पाती थी सना
! पर सुभाव की ऐसी गऊ कि दफ़्तर से
सीधे चौंके में 'अम्मा, अम्मा' करती
चली आयेगी और चट-से कटोरदान से रोटी
ही निकालकर खाने लगेगी। रात-आधी रात
जब भी लौटेगी, बस, 'अम्मा, अम्मा'
करती सारा घर गुलजार कर देगी। अब गयी
तो भूलकर एक चिट्ठी भी नहीं डाली। न
जाने कहाँ है लड़की !"
प्रवीर उठकर अपने कमरे में चला गया।
विवाह के साथ ही प्रवीर के कमरे ने
अपने चिरकुमार व्यक्तित्व की केंचुली
उतार दी थी। टूटी, झूला बन गयी
आराम-कुरसी भी गोदाम में चली गयी थी
और खिड़की पर लेस के परदे खिंच गये
थे। छोटा-सा कमरा दो पलँगों से भरकर
रह गया था। कमरे में आकर प्रवीर पलँग
पर लेट गया। सचमुच ही बेचारी लड़की न
जाने कहाँ भटक रही होगी ! वह जाने की
ऐसी तिकतिक न लगाता तो शायद वह इतनी
जल्दी जाती भी नहीं।
|