नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
जैसा आकस्मिक मिलन था वैसा ही आकस्मिक
बिछोह। शायद जीवन-भर उसे चलती गाड़ी
से ऐसे ही अनजान प्लेटफ़ॉर्म पर अपना
अधलपेटा बिस्तरबन्द और सूटकेस लटकाकर
उतर जाना होगा ! जिस तानी मौसी के
स्नेही चेहरे को वह पहचान भी नहीं
पायी थी और जिसके आलिंगन-पाश को निपट
बनावटी समझ वह मुक्त होने को छटपटाने
लगी थी, उसी छाती पर सिर रखकर सब कुछ
कह देने को अब वह फिर छटपटाने लगी।
क्या सोच रही होगी वह ! कैसी अकृतज्ञ
लड़की थी कली ! क्या उसके गुसलखाने से
लौटने तक रुक नहीं सकती थी ? बिना कुछ
कहे ही ऐसे उतर जाने के लिए उसकी
अन्तरात्मा उसे सहसा बुरी तरह फटकारने
लगी। तानी मौसी अकेली होती, तो वही
मिलन कितना सुखद हो सकता था ! उस शेर
की खाल में लिपटे मौसी के गीदड़ सहचर
ने कली को सहमाया हो ऐसी बात भी नहीं
थी, अपनी पिछली ज़िन्दगी की कड़वाहट
को धो-पोंछकर बहा देने का निश्चय कर
ही वह घर से निकली थी, फिर क्या
जान-बूझकर ही पहले ग्रास में मक्षिका
निगल लेती ? सूटकेस पास खिसकाकर वह
बेंच पर बैठ गयी। अब किसी भी दूसरी,
कुछ सेकेण्डों के लिए रुकी रेलगाड़ी
में ही भागकर बैठना होगा। शायद कुली
भी उसे स्वयं ही बनना होगा। कैसा अजीब
स्टेशन था ! लगता था, किसी भुतही
बस्ती का भुतहा स्टेशन था वह ! न एक
कुली, न यात्री। खैर, कोई-न-कोई गाड़ी
तो पल-भर को रुकेगी ही, और किसी भी
कुछ पलों की रुकी गाड़ी में वह बैठ
सकती थी। चलती और क्षण-भर को ऐसे
अनजान अनामा स्टेशनों पर रुकती
रेलगाड़ियों में चढ़ने-उतरने का उसे
कभी अच्छा अभ्यास था।
पाण्डेजी बातों ही के धनी नहीं थे।
भावी समधी को दिया गया अपना आश्वासन
उन्होंने समय से कुछ पहले ही पूरा कर
दिया। दामोदर ने भी उन्हीं की कृपा से
अपनी खोयी नौकरी की कटी डोर फिर से
थामकर सँभाल ली थी। प्रवीर दिल्ली में
चार्ज लेकर घर आ गया था। विवाह में
किसी प्रकार का आडम्बर नहीं होगा, यह
प्रवीर की पहली शर्त थी। वह शर्त तो
अम्मा को मान्य थी, पर ज़िद्दी पुत्र
की दूसरी शर्त ने ही उनका सिर-दर्द
बढ़ा दिया था। एक पुरोहित को छोड़कर
प्रवीर ने अन्य आत्मीय स्वजनों को
निमन्त्रण-पत्र ऐसे छलबल के चातुर्य
से डाक में छोड़े थे कि हवाई जहाज़ से
उड़कर आने पर भी शायद निमन्त्रित
अतिथि नहीं पहुंच पाते। छोटे भाई के
विवाह में आठ दिन के लिए आकर दो महीने
बिता गये पहाड़ के अतिथियों के समागम
की स्मृति प्रवीर भूला नहीं था। न
जाने कितनी चाचियाँ, ताइयाँ और आधी
दर्जन बुआओं
ने आकर उसका जीना दूभर कर दिया था।
जहाँ देखो, वहीं आधे दर्जन बच्चे
कुलाट खा रहे हैं, उस पर लॉन में
सूखती पंचरंगी साड़ियों और बदरंगे
पेटीकोटों की लम्बी कतार। इस बार वह
उस बेहूदगी की पुनरावृत्ति नहीं होने
देगा। उसी की ज़िद से विवाह, बिना
किसी आडम्बर के नितान्त आवश्यक
कर्मकाण्ड निभाकर, ऐसी सादगी से
सम्पन्न हो गया था कि कोई द्वार पर
खड़े होने पर भी शायद नहीं जान पाता
कि अभी-अभी उस गृह में विवाह-जैसे शुभ
कार्य का श्रीगणेश हुआ है। न उसने
सेहरा बाँधा, न फूलमाला लटकायी। पिता,
दोनों बहनोइयों और पुरोहित को कार में
बिठाकर स्वयं डाइव करता हआ ऐसे पहँच
गया जैसे पाण्डेजी के यहाँ किसी जलपान
के आयोजन के लिए निमन्त्रित अतिथियों
को लेकर आया हो। पाण्डेजी की जनकपुरी
में वर को ऐसे उपस्थित हो गये देखकर
खलबली मच गयी थी, पर पाण्डेजी भी एक
ही घाघ थे। पिछवाड़े के मार्ग से वे
बड़े चातुर्य से सीमित बारात को अपनी
बँगलिया में खींच ले गये। वहीं
उन्होंने अपने सनकी जामाता के चरणों
पर सिर टेक दिया, "बेटा, ऐसे वैरागी
वेश में तुम्हें कैसे वहाँ ले जाकर
खड़ा करूँगा ? यहाँ का पूरा
मन्त्रिमण्डल जुटा है। कुन्नी मेरी
सबसे छोटी लड़की, वह भी क्या कहेगी ?
सब बहनों की शादी जिस धूम-धड़ाके से
हुई, वह देख चुकी है। फिर तुम ऐसे
बिना सेहरे-तिलक के खड़े हो जाओगे, तो
मैं इष्ट-मित्रों को क्या मुँह
दिखाऊँगा ?" फिर तो पाण्डेजी ने
पन्द्रह मिनट ही में उजड़ी बारात को
सँवार लिया। सफ़ेद चूड़ीदार, रॉ सिल्क
की शेरवानी और तिरछी टोपी में सँवरे
अपने दूल्हे को देखकर कुन्नी मुग्ध हो
गयी। निश्चय ही वह अपनी अन्य बहनों
में सबसे अधिक भाग्यवान् थी। अपने घर
की सादगी की छूत प्रवीर पाण्डेजी के
घर तक नहीं पहुंचा पाया। कुन्नी सबसे
छोटी लाड़ली बेटी थी, उसके विवाह में
उनके औदार्य को वह रोकता ही कैसे ! एक
प्रकार से अपने को लुटाकर ही पाण्डेजी
ने पुत्री को विदा किया था। कुछ सामान
तो उन्होंने पैक कर सीधा दिल्ली ही
भिजवा दिया था।
"हमने सोचा," वे विदा होते समधी के
सम्मुख हाथ बाँधकर कहने लगे थे, "जब
इन्हें दो दिन बाद दिल्ली जाना ही है,
तो क्यों न फर्नीचर सीधा वहीं भेज
दिया जाये ? मेरे एक मित्र का ट्रक भी
जा रहा है, अभी सब सामान बड़े आराम से
चला जाएगा।"
फिर जामाता को एकान्त में बुलाकर
उन्होंने पाँच हज़ार का एक चेक काटकर
थमा दिया।
"लो बेटा, यह तुम्हारा शगुन है।"
प्रवीर चौंककर दो क़दम पीठे हट गया
था। “कितने शगुन दे रहे हैं आप—अब मैं
कुछ नहीं लूँगा।"
"नहीं-नहीं, यह तुम्हें लेना ही होगा।
यह तो मेरी कुन्नी का जेब-ख़र्च है,
हनीमून का जेब-खर्च !" कुन्नी का नाम
लेते ही उनकी आँखें भर आयी थीं। पर उस
व्यक्ति
का चेहरा ही ऐसा था कि आँखों में कैसे
ही असली आँसू क्यों न चमकें, प्रवीर
को यही लगता था कि वे ग्लिसरीन के
नकली आँसू ही हैं।
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