नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
प्रवीर चुपचाप तखत पर पड़ी पेंसिल से माशी माँ
की हिसाब की कॉपी पर उलटी-सीधी रेखाएँ खींचता
रहा।
"और सोच," घोष स्वयं ही बड़बड़ाता जा रहा था,
"पड़ गयी है उन विदेशी लफ्फाड़ियों की सोहबत
में ! एकदम गिरलायन से जंगली, निर्भीक, खूखार,
वनचर, कन्धे तक झूलती सुनहली अयाल, ढीलमढल्ला
राजा जनक के चोगे-सा कोट, कामातुर, सुर्ख
आँखें, गले में रुद्राक्ष की माला—साले एकदम
बीरभूमि के नरभक्षी कापालिक लग रहे थे और साथ
में यह सुन्दरी अघोरी-भैरवी।
"बड़ा आश्चर्य है रे प्रवीर," फिर ऐसे धीमे
स्वर में फुसफुसाकर कहा, जिससे चौके में बैठी
माँ न सुन पाये।
“ऐसी दहकती भट्ठी के इतने पास धरा तेरा
हृदय-नवनीत पिघलकर उसी में नहीं गिर गया।
मैंने तो उसे दो-तीन ही बार देखा है, पर जितनी
बार देखता हूँ, जी चाहता है ऊँची आवाज़ में
चण्डीदास का वही पद गुनगुनाने लगूं-
प्रभाते उठिया, जे मुख हेरी तू
दिन जाबे आजी भालो“आज सुबह उठते ही जिसका
चन्दरमुख देखा है उसे देखने पर निश्चय ही मेरा
दिन अच्छा बीतेगा।''
प्रवीर नटू को वर्षों से जानता था। ऐसे न जाने
कितने चेहरे देखकर वह इस पद को लाखों बार
दोहरा चका होगा ! लडकी मात्र को देखने पर नट
का हृदय सिखाये नट-सी मशीनो गुलाटें खाने लगता
था। यह कोई नयी बात नहीं थी।
खाना खाकर प्रवीर, बड़ी देर तक वहीं गप्पें
मारता रहा। कलह से मलिन अपने गृह लौट जाने को
उसका मन ही नहीं कह रहा था। नटू को अपने नाटक
के रिहर्सल
के लिए जाना था, उसे वहाँ छोड़कर वह घर लौटा,
तो दस बज गये थे। गेट पर पहुँचते ही, सशंकित
दृष्टि से उसने बेंच को देखा। कहीं आज भी
श्मशानसाधिका मदालसा बेंच पर ही चित पड़ी न
मिले। पर आज उसके कमरे में ताला नहीं था।
द्वार बन्द थे। लगता था, माया-वनविहारिणी
स्वामिनी आज स्वेच्छा से ही कपाट मूंदकर सो
गयी थी।
वह अपने कमरे में जाकर सो गया। तकिये पर सिर
रखते ही उसे गहरी नींद आ गयी। आँखें लगी ही
थीं कि वह अचकचाकर जग गया। उसे लगा, किसी ने
उसके पैर का अंगूठा ज़ोर से पकड़कर हिला दिया
है। “कौन ? माया," उसने पूछा—निश्चय ही दामोदर
ने आधी रात को फिर कोई बखेड़ा कर दिया होगा।
"क्या हुआ माया ?" वह उठ बैठा।
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