नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
पटल का दोलना, मागुर माछ का झोल और छेने की
खीर। यही सब पसन्द था उसे। आज वही सब राँधने
का सुवासित आयोजन रचाती माशी माँ वहीं से
प्रश्नों की बौछार करने लगी।
"क्यों रे प्रवीर, तेरी बहू सुना, खूब गोरी
है, अपनी जया-माया से भी उजली ! बाप रे बाप !
तुम पहाड़ियों का रंग तो कश्मीरियों से भी
चिट्टा होता है रे—एक तू ही काला कैसे हो गया
?"
"फिर भी तो माँ, तुम मुझे निमाई कहकर पुकारती
हो,” प्रवीर हँसकर लकड़ी के तख़्त पर लेट गया।
“आहा, चेहरे के रंग से क्या होता है सोना, मन
का रंग देखकर ही तो तुझे पुकारती हूँ
'निमाई'।"
“और क्या" नटू ने मित्र की पीठ पर कुहनियाँ
टेक ली—“यह गौरांग महाप्रभू न आते तो आज दो-दो
नाती-नतनी इस घर को गुलजार कर देते।"
"चुप कर राक्षस" माँ ने उसे झिड़क दिया, “न
जाने कहाँ के गड़े मुरदे उखाड़ता है अभागा।
हाँ रे निमाई, तेरी माँ ने कहा है, अगले
रविवार को मुझे भी तेरी ससुराल ले चलेंगी। पर
मैं तो इस बीच तेरे घर जाकर गज़ब ही कर आयी रे
! सुना दे तो रे नटू, मुझे तो कहते भी लाज आती
है।" माशी माँ आँचल से मुँह ढाँप हँसने लगीं।
"जानता है माँ क्या कर आयीं ? तेरे यहाँ गयी
तो मिस मजूमदार शायद किसी दुलहनों की फैशन
परेड की मॉडल बनने जा रही थीं। एकदम
सजी-धजी_शो-केस की मोम की गुड़िया बनी थीं।
माँ ने आव देखा न ताव, बस लिपट गयीं। कहने
लगीं, 'मेरा मन कहता है, यह मेरे निमाई की बहू
है। क्यों बेटी, हो ना प्रवीर की होनेवाली
बहू' ?"
"और बस, उस छोकरी ने भी सोचा, बनाओ बुद्धू।
लजा-सकुचाकर सुना ऐसी छुईमुई बन गयी, जैसे
सचमुच ही तेरी बहू हो। मुसकराकर कह दिया,
'हाँ' और हमारी इडियट मातेश्वरी ने आशीर्वादों
की झड़ी लगा दी। वह तो उसी पल तुझे ढूँढ़ता
मैं पहुँचा, तो हक्का-बक्का रह गया। माँ उसे
गैया बनी ऐसे चूम-चाट रही थी जैसे बिछड़ी
बछिया हो। मेरा माथा ठनका, मैंने पूछा, 'क्यों
मिस मजूमदार, आज माँ का
आप पर यह कैसा प्रेम उमड रहा है।' तो बदजात
छोकरी हँसने लगी।"
"अरे, मैं क्या जानूँ रे निमाई," माशी माँ
बोली, “लड़की का चेहरा तो ऐसा भोलाभाला था,
जैसे अभी भी माँ की दूधपीती बच्ची हो और पेट
में सवा दो गज लम्बी दाढ़ी ! अरी, मैं क्या
कोई तेरी देवरानी-जेठानी हूँ, जो ऐसा मज़ाक़
किया ? अब बता भला ! तेरी दादी की उम्र की मैं
और मुझी को बुद्धू बना गयी। पर हाँ रे प्रवीर
! ऐसी सुन्दरी कुँवारी लड़की को घर में रखना
ठीक नहीं है। यह तो मैं जानती हूँ कि तू ठहरा
संन्यासी-जती मानुष, पर अपने इस अभागे पर मुझे
रत्ती-भर विश्वास नहीं होता। दिन-रात बाहर
नाटक खेल-खेलकर घर में भी कभी-कभी नाटक खड़ा
कर देता है। तेरे घर आता-जाता रहता है। कब आकर
कह दे, 'ले माँ, तेरे लिए बहू ले आया हूँ।' और
फिर ऐसी बहू जो अपनी दादी-नानी से भी मज़ाक़
करती फिरती है, हमें पसन्द नहीं है बाबा।"
नटू को माँ का यह संकेतात्मक प्रस्ताव बेहद
पसन्द आया। वह ज़ोर से हँसकर बोला, “माई री
यार, यह बात अपने दिमाग़ ही में नहीं आयी। पता
नहीं मिस मजूमदार को नाटक-वाटक में रुचि है या
नहीं। इस बार हमारा संघ एक प्रतीकात्मक नाटक
का प्रयोग कर रहा है। एक ऐसा चेहरा जुट जाता
तो बस ! उस दिन श्मशान में राँगा दी की चिता
को एकटक देख रही थी छोकरी। दो बड़ी आँखों के
फोकस में दायें-बायें जलती दो चिताओं के
प्रतिबिम्ब को कोई दूर से भी देख सकता था। ऐसी
पात्री अपने झुलू दा के मेकअप के स्वर्गीय
स्ट्रोक से धन्य होकर एक बार स्टेज पर आ जाये
तो बस, चित भी अपनी और पट भी। पार्ट की लाइन
भूल भी जाये, तो वे सदाबहार आँखें ही पूरा
पार्ट प्राम्प्ट कर देंगी।"
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