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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


उन्नीस


वह उसके कानों के पास चेहरा सटाकर फुसफुसाने लगी। “माया नहीं है काबुलीवाले, यह तो मैं हूँ—कली !" फिर वह बचकानी हँसी-हँसती, उसके कन्धे के पास अपना सिर ले आयी। क्रमशः निकट आती उसके मन्द स्मित की सुरसुरी प्रवीर की रीढ़ की हड्डी को सुरसुरा गयी।

इतनी रात को उसके कमरे में वह दुरन्त लड़की किसी खुले छिद्र से आँधी के अबाध्य झोंके-सी ही घुस आयी थी।

"डरो मत काबुलीवाले ! तुम्हें खा नहीं जाऊँगी, लो, यह देने आयी थी !'' वह उसके सामने खड़ी हो गयी, अस्पष्ट धुंधलके में वह छपे ड्रेसिंग गाउन के नीलाभ थैले में डूबी दो बालिका की-सी पतली बाँहों को ही देख पाया।

"लो," उसने जेब में से कुछ निकाल प्रवीर की हथेली ज़बरन खींचकर थमा दिया, काठ बनकर बैठा प्रवीर चौंक उठा।

"बस, घूम आये काबुल-कन्धार, पर रहे बुद्ध के बुद्धू !' कमनीय कपोलों की मदमस्त मलय-कस्तूरी की पिचकारी जैसे किसी ने खींचकर प्रवीर की कनपटी पर मार दी, वह तिलमिलाकर पीछे हट गया। पर हिप्नोटिक ट्रान्स में ढुलकती मीडियम-सी कली उधर ही लचक गयी।

"किसी अनजान कुँआरी सोयी लड़की के पलँग पर किसी अविवाहित तरुण की अँगूठी मिले तो मामला रादर शेडी लगता है, क्यों है ना ? पर मैं समझ गयी थी कि यह किसी अनाड़ी की पहली बार अनभ्यस्त उँगली पर पहनी गयी अँगूठी है, वैसे
चाहती तो दुष्यन्त की-सी इस अंगूठी का बिना भुना चेक ब्लैकमेल मार्केट में ऊँचे दामों में भुना सकती थी। पर...'' वह फिर किसी अदृश्य किन्नरी की-सी दैवी मुसकान से प्रवीर को मूक बना गयी।

“पर तुम कली को जितनी नीच समझते हो, वह उतनी नीच नहीं है। वैसे, सच पूछो तो केवल अँगूठी ही लौटाने मैं यहाँ नहीं आयी।"

उसका कण्ठ-स्वर ट्रान्समीटर फेल हो गये रेडियो से विलीन होते स्वर की ही भाँति कुछ क्षणों तक विलीन हो गया—फिर मोहक अधर कानों से सट गये। शायद वह उस सम्भावना की ओर भी सजग थी कि दामोदर के अदृश्य-टेप रिकॉर्डर का ताना-बाना कहीं आसपास ही बिखरा हो।

"जानते हो क्यों आयी हूँ ?"

प्रवीर सर्वांग थरथरा उठा। क्यों वह तीव्र पहाड़ी नाले के वेग में बहे जा रहे कठोर शिलाखण्ड-सा अपनी समग्र कठोरता खोता जा रहा था। यह निश्चय ही इस लड़की की ज्यादती थी। लगता था आज भी उसे कल की ही भाँति उठाकर कमरे में बन्दिनी बनाना होगा।

"तुम सोच रहे होगे, मैंने कल नशा किया था। हाँ, किया था, जानते हो क्यों?" वह और भी निकट सट गयी।

विदेशी सुगन्ध क्या ऐसी मारात्मक होती होगी ? सुगन्धित केशों का मृदु स्पर्श कुछ क्षणों के लिए प्रवीर को फिर काठ बना गया।

"मेरी नौकरी ही ऐसी है काबुलीवाले—कभी 'ताज' के 'बालरूम', 'क्रिस्टल रूम' और कभी श्मशान का सन्नाटा ! उस दिन अपने विदेशी अतिथियों को लेकर जाना पड़ा श्मशान ! पहले जो फिरंगी भारत के राजा-महाराजा हाथी-हौदे देखने आता था, वह अब भारत के कंकाल और चिताएँ देखने आता है, अब वही मुरदों की खोपड़ी का पोलो खेलना चाहता है अभागा ! दिन-भर कल जलती चिताएँ देखीं, लौटने लगी, तो लगा कोई पीछे-पीछे आ रहा है। जलते नाखून और बालों की दुर्गन्ध नथुनों में ऐसी भरकर रह गयी थी कि 'ऑल द परफ्यूम्स ऑफ अरेबिया' सूंघकर भी शायद नहीं जाती।" वह फिर हँसकर अलस मखमली पर्शियन बिल्ली-सी ही प्रवीर से सट गयी- "क्षण-भर पहले, शाखा सिन्दूर में दमकती जिन दो सौभाग्य-सुन्दरियों को चिता में बीभत्स कोयला बना देखा था वह जैसे दाँत निकाल-निकालकर मुझे धमकियाँ देने लगीं।"

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