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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


"शाबास माँ," नटू ने बढ़कर माँ की पीठ ठोंक दी और उसे भीतर खींच लाया। पीछे-पीछे वहीं धृष्टा छोकरी भी आकर खड़ी हो गयी थी।

माँ" नट ने फुसफुसाकर कहा था, "तभी तो कहता हूँ. तम्हें स्कॉट-लैण्ड यार्ड का जासूस बनना था।" फिर उसने जो कुछ माँ को बतलाया, वह सुनकर स्तब्ध हो गयी थीं। ऐसी पतिता को वह बहू बनाकर ले आया ? जिस नाटक-मण्डली में नटू काम करता था, वहीं वह लड़की भी कभी-कभी अभिनय करने आया करती थी। नया क़ानून बनने पर उसकी माँ ने पेशा छोड़ दिया था। कभी-कभी आकाशवाणी से दादरा, ठमरी गा लेती कभी गाने के ट्यूशन कर लेती। इस भाँति उसने लड़की को बी. ए. तक पढ़ा लिया था। लड़की में भी अद्भुत प्रतिभा थी। चेहरा फोटोजेनिक होता, तो शायद फ़िल्म लाइन में भी चमक उठती। पर थियेटर कम्पनी की फुटलाइट में ही वह चेहरा ऐसा चमका कि थोड़े दिनों में वह एक साथ अनेक नाट्य-संघों की द्युतिमान् तारिका बन गयी। उसी सौर-मण्डल की जगमगाहट में उसका परिचय
धूमकेतु-से चमकते शिवकान्त भादुड़ी से हुआ। प्रसिद्ध उद्योगपति का इकलौता पुत्र जहाँगीर बनता, तो वह नूरजहाँ, वह आनन्दकन्द रघुनन्दन की भूमिका में अवतरित होता, तो वह सकुचाती सीता के अभिनय से दर्शकों को सम्मोहित कर देती। किन्तु नाटक के परदे के साथ ही एक दिन उसके जीवन-नाटक का भी परदा ऐसा गिरा कि बेजारी टुलू अपना सब मुखस्थ किया पार्ट भूलकर रह गयी।

अवस्था ऐसी थी कि अब लव-कुश की जननी बनने से कुछ पूर्व का ही अभिनय वह निभा सकती थी। गोलमटोल पीले चेहरे की उस नूरजहाँ की व्यथा को न भाँप लेते, ऐसे मूर्ख कलकत्ता के दर्शक नहीं थे। माँ ने सुना तो द्वार बन्द कर दिये। अपने कलुषित जीवन के पिछले परिच्छेद फाड़-फूड़कर वह जला चुकी थी। नवीन समाज में उसने एक मर्यादापूर्ण स्थान बना लिया था, उसे अब मूर्खा पुत्री के कलंक से वह दूषित नहीं होने देगी। क्रोध से उबलती टुलू पार्क की बेंच पर बैठी रो रही थी कि नटू घोष मिल गया। पहले उसने सोचा, शायद वह वनगामिनी पतिपरित्यक्ता सीता का पार्ट कण्ठस्थ कर रही है, पर जब उसके पूछते ही वह उसी से लिपटकर फफक-फफककर रो पड़ी, तो कच्चे दिल का नटू स्वयं भी रोने लाग। एक बार नाटक के तीन घण्टे पहले जहाँगीर को गैस्ट्रो एण्टाइटिस ने अधमरा बना दिया था और नट्र ने ही इस कलपती नूरजहाँ को अपनी बाँहों में सँभाल लिया था। दर्शक उस नवीन जहाँगीर के अभिनय को देखकर मुग्ध हो गये थे, फिर आज वह उसे जीवन के विराट रंगमंच पर अकेली कैसे छोड़ देता ? तीन महीने तक एक मिशनरी अस्पताल में उसने टुलू के प्रसव का पूरा ख़र्चा ऐसे औदार्य से उठाया, जैसे वह ही अजन्मे शिशु का पिता हो ! फिर जब ब्रोच केस में अकालमृत्यु-कवलित मृत शिशु की देह पर टुलू नाटकीय मुद्रा में पछाड़ें खाती विलाप करने लगी, तो साथ में वह भी बिलखने लगा। वहीं एक नर्स की सान्त्वना उसे अचानक प्रेरणा दे गयी, "रोते क्यों हो मि. घोष, अभी तो आप दोनों की पूरी ज़िन्दगी पड़ी है। भगवान ने चाहा तो, अभी ऐसे बीसियों बेटे होंगे।" आज के परिवार नियोजन का वर्ष होता, तो अभागी नर्स की नौकरी चली जाती। नटू ने प्रवीर से हँसकर कहा था, “पर मुझे उसकी बात प्रेरणा दे गयी। मैं टुलू को उसी क्षण रिक्शा कर घर ले आया।"

पर लाने से क्या होता ! माँ ने झोंटा पकड़कर मुसकराती बेहया बहू को किया घर से बाहर और नटू को कमरे में बन्द कर तीन दिन तक भूखा रखा। चौथे दिन भूखे शेर और शेरनी की लड़ाई के बीच में यदि प्रवीर नहीं पड़ता, तो अनर्थ हो गया होता। उस दिन से प्रवीर को जब माशी माँ देखतीं, उनकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू छलक आते। पर लाख बुलाने पर भी वह इस बार एक दिन भी खाने का निमन्त्रण स्वीकार नहीं कर पाया था। आज अचानक ही अपने को स्वयं निमन्त्रित कर उपस्थित हो गये अनमोल अतिथि की अभ्यर्थना में घोष-जननी दुहरी हो गयी। लड़के की पसन्द को वह बचपन से पहचानती थीं। लाख हिन्दुस्तानी हो, पसन्द थी एकदम बंगाली।

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