नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"देखो दामोदर," वह उलटे पाँवों लौट आया,
“पाण्डेजी के यहाँ तुम्हारा जाना ठीक नहीं
है।"
"ओह अच्छा ! तुम्हारा जाना तो ठीक है ना ?" वह
हँसकर कहने लगा, "मैंने सुना, तुम्हें कल फिर
चाय पर बुलाया है। शायद तुमने नहीं सुना।
मैंने कहा था ना, हज़ार हो आखिर पुलिस महकमे
का अफसर हूँ—उड़ती चिड़िया तो हमारा थानेदार
ही पहचान लेता है। अभी उन्हीं का तो फ़ोन आया
था। हमने सुन लिया। तुम तो साले बहरे हो। कोई
मन्त्रीजी आ रहे हैं—पाण्डेजी तुम्हारी बदली
के लिए उन्हीं की धर-पकड़ कर रहे हैं। इसी से
तो हम भी जा रहे थे कि बहती गंगा में हम भी
हाथ धो लें, पर तुमने टोक दिया। दामोदर को
किसी ने चलते-चलते टोक दिया, तो फिर वह वहाँ
भूलकर भी नहीं जाता, समझे ?"
प्रवीर ने ठीक ही सुना था। वह अपने कमरे में आ
गया तो माया भागती-भागती आ गयी। "बड़े दा,
पाण्डेजी का फ़ोन आया था। कल मन्त्रीजी उनके
यहाँ चाय पर आ रहे हैं, पाण्डेजी ने तुम्हें
भी बुलाया है। शायद तुम्हारी बदली अब दिल्ली
जल्दी ही हो जाएगी।"
"ठीक है," प्रवीर ने मन-ही-मन सोचा, कल ही
एकान्त में वह कुन्नी को सब बातें समझा देगा।
घर की बहू बनकर वह जब आ ही रही थी, तब दामोदर
का
परिचय देने में क्या दोष था ! पर जया ने
दामोदर की बाँहों में कली को देखने का जो
स्पष्ट अभियोग लगाया था, वह क्या सच था ? क्या
दामोदर सचमुच ही इतना गिर गया होगा ? और कली ?
क्या वह उन बाँहों में बँधकर चीख़ी-चिल्लायी
नहीं होगी ?
उस दिन प्रवीर कहीं भी घूमने नहीं गया। माया
को बुलाकर उसने एक प्याला कॉफी कमरे में ही
मँगाकर पी ली।
"रात को भी मुझे खाने पर बाहर जाना है माया,
तुम लोग खा लेना," कहकर वह घोष के यहाँ चला
गया। नटू घोष की स्नेही विधवा माँ उसे बचपन से
निमाई 'निमाई' कहकर पुकारती थी।
" 'आहा की ठाँडा छेले'—(अहा कैसा ठण्डा पुत्र
है)—एक ये मेरा नटू है, ज़रा पूछो इससे, एक
दिन भी ऐसा जाता है, जो माँ से नहीं झगड़ता !"
सचमुच ही तुरन्त पितृहीन नटू माँ का सिरदर्द
नित्य बढ़ाता ही रहता। गत वर्ष माता-पुत्र के
बीच ऐसी ठनकी कि माँ पोटली बाँध-बूंधकर
काशीवास के लिए निकल गयीं। प्रवीर ही उन्हें
मनाकर स्टेशन से लौटा लाया था। न जाने किस
नाटक-मण्डली में सीता बनी एक दुबली-पतली गोरी
असमी लड़की को लेकर नटू घर आ गया था।
"माँ, तुम्हारे लिए बहू ले आया हूँ, रोज़ कहती
थीं ना—बहू ला, बहू ला।"
माँ का एकादशी के व्रत से सूखा मुँह और सूखकर
रह गया। दुबली-पतली एकदम कंकाल, चेहरा ऐसा
पीला, जैसे सौरगृह से अभी निकलकर आयी हो, न
चेहरे पर श्री, न आँखों में लज्जा, न प्रणाम,
न नमस्कार, बस खी-खी कर हँसने लगी थी छोकरी।
"क्या बकता है नटू," माँ कन्धे तानकर खड़ी हो
गयी थी। “यह नयी बहू है या जच्चा ?"
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