नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"देख लल्ला, अब जब सगाई हो गयी है, तो
ढील-ढलाव देना ठीक नहीं, इसको तो देख ही रहा
है, खाना-पीना छोड़कर उसी बेहया के दुख में
घुली जा रही है। तेरी शादी जब तक नहीं होगी,
तेरे बाबूजी पाण्डेजी से कहेंगे भी किस मुँह
से। फिर कल पाण्डेजी मुझसे कई बार हाथ जोड़कर
कह गये हैं कि जैसे भी हो अप्रैल में ही
कुन्नी की शादी से निबटना चाहते हैं। लड़की को
ढाई साल की ऐसी विकट दशा है कि फिर शादी नहीं
हो सकती।"
"तो हर्ज़ क्या है अम्मा, ढाई साल बाद ही
सही।"
अम्मा ने अविश्वासपूर्ण दृष्टि से सनकी पुत्र
को देखा और रुआँसी हो गयीं। "और क्या, बुढ़ापे
में सेहरा बाँधना, मेरा क्या ! आज तक तूने
मेरी कोई बात मानी है, जो आज मानेगा !" बाबूजी
उठकर बाहर चले गये, उनके कुछ न कहने पर भी
चेहरे की खिन्न रेखाएँ बहुत कुछ कह गयी थीं।
अम्मा चश्मा उतारकर पाँछने लगीं। कल समधियाने
से जाने किस कुघड़ी में लौटीं कि बड़ी-बड़ी
स्टील की थालियों में भरे मेवे मिष्टान्न का
एक बताशा भी पास-पड़ोस में नहीं बाँट पायीं।
सब सामान वैसा ही धरा था। जया की पुत्री ही
एक-दो बार लुभावनी थालियों पर पड़ा मेज़पोश का
यूँघट हटाकर झाँक गयी थी और जया ने उसे एक
चाँटा धर दिया था। निर्वीर्य पति के घर-दामाद
बन जाने पर वह पुत्री को ननिहाल में
सामान्य-सी याचना करने पर भी निर्ममता से कूट
देती। उसे लगता, वह मायके में अपना
महत्त्वपूर्ण पद खो बैठी है। जिस लाड़-दुलार
से अम्मा
उसे इकलौते पुत्र की ही भाँति पान के पत्ते-सा
फेरती थीं, उसका स्थान अब करुणा ने ले लिया
था, वही सहानुभूति, जननी की निष्कपट सहानुभूति
होने पर भी उसे विषतुल्य लग उठती, पहले की जया
होती तो शायद प्रवीर को वहीं पर चीरकर धर
देती। पर अब वह पोर्टफोलियो विहीन मन्त्री की
ही भाँति चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। एक
बार अम्मा ने बड़ी करुण याचनापूर्ण दृष्टि से
उसकी ओर देखा। जैसे कह रही हो—'तू ही इसे
मनाना जया। तेरी बात तो यह खूब सुनता था'।
"काबुल जाने पर त क्या कभी साल-भर से पहले
लौटा है।" अम्मा जैसे निराशा से हताश हो गयी
थीं।
"देखो अम्मा !" प्रवीर ने कुरसी अम्मा की ओर
मोड़ ली। “सात दिन बाद तो मुझे वैसे भी जाना
था और उन सात दिनों में तो तुम मेरा ब्याह रचा
नहीं सकती थीं। नाक में नकेल तो तुमने डाल ही
दी है, घबरा क्यों रही हो ?''
"क्यों अम्मा," दामोदर न जाने कहाँ से आकर फिर
द्वार पर खड़ा हो गया, "क्या समधियाने की
मिठाई का अचार डालोगी ? खिलाओ ना एक-आध
बालूशाही! हमें तो भाई अपने घर में खाने के
बाद मिष्टदन्त का अभ्यास है।"
फिर अम्मा के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही
उसने सबसे बड़े थाल का कपड़ा उठाकर दोनों
हाथों में कँगले की भाँति बालूशाहियाँ ऐसे भर
ली जैसे आज तक कभी देखी ही न हों। जया का
चेहरा क्रोध, अपमान और विवशता से लाल पड़कर
सफ़ेद हो गया। अबोध पुत्री को उसने ऐसी ही
लोलुपता के लिए समुचित दण्ड दे दिया था, पर इस
सुशिक्षित परिपक्व मस्तिष्क के प्रौढ़ पति को
क्या वैसा ही दण्ड दे सकती थी? पति के
निर्लज्ज आचरण से क्षुब्ध होकर वह कण्ठ की
सिसकी कण्ठ ही में घुटकती हवा-सी बाहर निकल
गयी। अम्मा चौके में चली गयीं। नवीन फ़ोन की
घण्टी सुनने का बहाना बनाकर आँख के इशारे से
माया को भी अपने साथ खींच ले गया, दामोदर
कुरसी खींचकर मिठाई के थाल के पास ही जम गया,
उसे किसी के आने-जाने की चिन्ता नहीं थी, नशा
उतर गया था। पर खुमारी अभी भी लाल आँखों के
भारी पपोटों को बोझिल बना रही थी। एक बालूशाही
उसने प्रवीर की ओर बढ़ा दी और हँसकर कहने लगा,
"लो चखो प्यारे, ससुराल की मिठाई और भी मीठी
लगती है।"
प्रवीर के जी में आया, वही बालूशाही खींचकर
उसके मद्यपान से मूर्ख बन गये चेहरे पर दे
मारे। क्या वह व्यक्ति लोकलाज, मान-सम्मान को
भी ठर्रे के साथ कॉकटेल बनाकर पी गया था या
'सस्पेंशन' के आकस्मिक आघात ने इसे पतनगर्त की
जानलेवा गहराई में ढकेलकर छोड़ दिया था ? “सोच
रहा हूँ प्यारे, आज तुम्हारी ससुराल तक घूम
आयें ! कल चलने लगे तो तुम्हारे ससुरजी ने
बड़ा प्रेम-भरा निमन्त्रण दिया है।"
दामोदर ने बालूशाही से चिपचिपे होंठों पर
तृप्त जिह्वा फेरी और कुरसी प्रवीर की
ओर खींच ली।
“आई सी, एक दस का नोट दे सकोगे क्या ? हमारा
प्रिवीपर्स आजकल तुम्हारी राजरानी बहन के पास
रहता है और आज उनसे कुछ मिलने की आशा व्यर्थ
है।"
प्रवीर का चेहरा तमतमा उठा। बहन के पास उसका
कैसा प्रिवीपर्स है, वह जानता था। कई बार उसका
उदास खिन्न चेहरा देखकर प्रवीर के जी में आया
था कि वह उसके हाथ में सौ-दो सौ रुपये रख दे,
किन्तु वह उस आत्माभिमानी बहन को खूब पहचानता
था। चेहरे को विकृत बना देनेवाले रोग, पति के
निर्लज्ज आचरण एवं 'सस्पेंसन' ने उसे इतना
'सेंसिटिव' बना दिया था कि तीज-त्यौहार पर दी
गयी रक़म को भी वह शंकाल होकर देख लेती, कहीं
कोई उसे दया की पात्री समझकर भीख तो नहीं दे
रहा है। यह वही जया थी, जो भाई से काबुल के
कोट, घड़ी और शिफॉन, ज्यॉर्जेट की इम्पोर्टेड
साड़ियों के लिए मचलने लगती थी।
"क्यों प्रवीर, किस सोच में पड़ गये। बड़े
आदमी हो, दस का नोट तो तुम्हारे कोट की सीवन
में ही पड़ा होगा !"
प्रवीर ने बटुआ खोलकर दस का एक नोट बड़ी
अवज्ञा से दामोदर के पैरों के पास फेंक दिया,
जैसे किसी बकबक कर रहे भिक्षुक को भीख दे रहा
हो और फिर वह बाहर निकल गया। उसे यह नोट न
देता तो शायद बेहया दामोदर उसकी ससुराल जाकर
पाण्डेजी से ही यह रक़म झटक लाता। क्या पता अब
भी जाकर माँग ले। अभी ही उसे साफ़-साफ़ समझा
देना ठीक होगा।
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