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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


अठारह


विरोधी पक्ष के किसी निर्लज्ज संसद-सदस्य की ही सीनाजोरी में तना वह हाथ बाँधकर तख्त पर जम गया। उसके मुँह से आती मादक दुर्गन्ध का भभका पूरे कमरे में फैल गया। स्पष्ट था कि वह सस्ते देशी ठर्रे की पूरी बोतल ही गटककर लौटा है। फूहड़ गँवारू ढंग से चबाये गये पान की पीक एक लम्बी रेखा बनाती, उसकी काट्सवूल
की कमीज़ के सुरुचिपूर्ण कॉलर को रँगती बटनों को लाल बना गयी थी, “यू आर नॉट सोबर दामोदर,' प्रवीर ने ठण्डे स्वर में कहा, “जाओ, एक-दो लोटा ठण्डा पानी सिर पर उँडेलकर सो रहो, फिर बातें होंगी।"

"तुम्हारे सिर पर न डालूँ दो लोटा ठण्डा पानी ?' वह झगड़ालू गँवार-सा व्यक्ति प्रवीर के सामने ऐसे तनकर खड़ा हो गया कि माया सहम गयी। क्या पता, नशे के झोंके में कहीं कुछ कर न बैठे !

"जो कहना है अभी कह दो, समझे, मैं इस घर का दामाद हूँ, नौकर नहीं।"

"देखो दामोदर," प्रवीर का स्वर आश्चर्यजनक रूप से ठण्डा था, "बाबूजी को लड़ाई-झगड़े से सख़्त नफ़रत है। तुम जब तक यहाँ रहना चाहो हमारे सिर-आँखों पर
लिए यह चीखना-चिल्लाना और पीना-पिलाना बन्द करो। यहा यह नहीं चलेगा। हमारे घर की अपनी एक मर्यादा है।"

"अच्छा !' व्यंग्य से दामोदर का गला एकदम ही पतला बन गया। उस सुदर्शन व्यक्ति के गोरे चेहरे पर रात-भर के असंयम ने होली का तेल-कालिख-भरा काला रंग-सा पोत दिया था—'तुम अपने घर की मर्यादा की बात कर रहे हो ? घर की बहू स्वामीजी के साथ भाग गयी, किराये में रहती है वह तीन कौड़ी की छोकरी, जिसकी सोहबत ने घर की बेटियों के भी पर उगा दिये हैं, जो मुरदों से भी फ्लर्ट करने श्मशान पहुँचती है। चौंको मत प्यारे, हम भी किसी ज़माने में पुलिस महकमें के अफ़सर रह चुके हैं। कौन परिन्दा उड़कर कहाँ जा रहा है। सब ख़बर रखते हैं। फिर हमीं से तुम घर की मर्यादा का बखान करते हो ? स्वयं तुम्हारा रिश्ता हो रहा है पाण्डेजी की पुत्री से। अब भला तुम्हारे पाण्डेजी को कौन नहीं जानता ? कौन-से दूध के धुले हैं पाण्डेजी ? कहो तो खोल दूँ फ़ाइल ?"

प्रवीर उसे एक प्रकार से धकेलकर अपने कमरे में चला आया। उस व्यक्ति से निरर्थक बहस में उलझना कीचड़ में पत्थर फेंकना था। सोचा था, थोड़े दिन छुट्टियों में ज़रा 'चेंज' हो जाएगा सो खूब चेंज हो गया था। अगले बुधवार को उसका एयर पैसेज़ बुक हो गया था, पर उसके जी में आ रहा था कि वह घर की इस दिन-रात की चखचख से छुट्टी पाने जल्दी ही काबुल लौट जाये।

दोपहर के खाने के लिए माया दो बार उसे बुलाकर लौट गयी। तीसरी बार, स्वयं बाबूजी द्वार पर आकर खड़े हो गये—'तुम्हारी अम्मा ने कल भी कुछ नहीं खाया। तुम भूखे रहे, तो वह भी अन्न का दाना मुँह में नहीं डालेगी।"

प्रवीर चुपचाप उठकर उनके पीछे-पीछे चला गया। खाने की मेज़ पर शायद सब उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। दामोदर को छोड़ अन्य सबके चेहरों पर वैसी ही अस्वाभाविक मुर्दनी छायी थी। जैसे भयानक गृह-कलह के पश्चात् रूठे मनाये गये
गृह-सदस्यों के चेहरों पर छायी रहती है। जया-माया खाने के कौरों से खेल-सी रही थीं। नवीन थाली में पड़ी चपाती को गोल-गोल घुमा रहा था, प्रवीर को आते देख उसने थाली पास खींच ली। खाने के कमरे में लगे परदे के व्यवधान से चौके में पीढ़े पर सबकी ओर पीठ किये बैठी अम्मा का उदास-उतरा चेहरा, बीच-बीच में दिख रहा था।

"बाबूजी,” प्रवीर ने मनहूस चुप्पी की हिमशिला पर हथौड़े की-सी चोट की। "मुझे बुधवार को जाना था, पर अब मैंने प्रोग्राम कुछ बदल लिया है। वहाँ कुछ ज़रूरी काम छोड़ आया था, सोच रहा हूँ परसों चला जाऊँ।''

बाबूजी के मुँह का गस्सा मुँह में ही रह गया। उस धुंधली सरल दृष्टि के मूक प्रश्न का वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सके। अम्मा अचानक परदा उठाकर मेज़ के पास खड़ी हो गयीं।

बाबूजी शायद उसके जल्दी घर से चले जाने का कारण समझ गये थे।

दामोदर खाना ख़त्म कर मेज़ पर बैठे अन्य सदस्यों की अनुमति लिये बिना ही बड़ी अभद्रता से सशब्द कुरसी ठेलकर बाहर चला गया। उसके कमरे से जाते ही तनाव से बोझिल अस्वाभाविक वातावरण वाष्प-सा बनकर विलीन हो गया। अम्मा प्रवीर के पास बैठ गयीं।

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