नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
वह इसी उधेड़बुन से उलझा घर पहुँचा, तो घर मुरदा
पड़ा था। हरामखोर मानबहादुर दरबान मुक्ता की
तनख्वाह लेता था। आज भाई बेंच पर मुरदा बना सो
रहा था। प्रवीर दबे पैरों बढ़ गया। आज उसकी कसकर
खबर लेगा। वह बेंच पर सोये दरबान की ओर झुका और
चौंककर सीधा हो गया। यह तो दरबान नहीं, जैसे
जहरीला करेता नाग ही फन फैलाये डँसने को खड़ा था।
लाल बनारसी साड़ी में, छाती पर चौकोर बटुआ धरे
कली सो रही थी। एक हाथ नीचे लटका था, एक की-रिंग
में झूल रहा दो-तीन चाबियों का गुच्छा, तर्जनी
में अटककर रह गया था। लग रहा था कि क्लान्त
स्वामिनी में कमरा खोलकर भीतर जाने की शक्ति भी
नहीं रही थी। ऑपरेशन थियेटर की मेज पर ईथर
सुँघायी गयी किसी दुर्बल रोगिणी-सी ही वह लकड़ी
की बेंच पर निढाल होकर पड़ी थी। उस बेहद अकेली,
मासूम और कमजोर लग रही लड़की को छोड़कर प्रवीर
भीतर नहीं जा सका।
कहीं कुछ नशा-वशा करके तो नहीं पड़ी थी! वह झुका,
पर उन मादक अधरों से किसी भी नशे का भभका नहीं
उठा। विवाह की प्रथम रात्रि की निस्तब्धता में
डूबी लाल बनारसी साड़ी पहने ही जैसे कोई बालिका
वधू सो रही थी। श्मशान से लौटी उस मधुमदालसा बाल
भैरवी को देख उसका कठोर चित्त भी पल-भर को
आर्द्र हो गया। क्या करे? अम्मा या जया-माया को
बुला लाये? पर दामोदर-जैसा कुटिल व्यक्ति इसी
बात को लेकर हंगामा मचा सकता था। जो स्वयं जैसा
होता है, वैसी ही बातें दूसरों के लिए भी सोचता
है। आधी रात को मूर्च्छिता सुन्दरी कली के लिए
व्याकुल होकर माँ-बहनों को बुला लानेवाले प्रवीर
के लिए वह दुट कभी अच्छी बात नहीं सोच पाएगा।
''मिस मजूमदार, मिस मजूमदार, ''उसने झुककर
निश्चेट पड़ी कली के नुकीले कन्धे को छूकर
हिलाया। उस क्षणिक स्पर्श ने उसे बिजली के नंगे
तार का-सा झटका
दिया और वह सहमकर सत्र हो गया।
कली न हिली, न इउलइा।
उार्थी में वँधे मुरदे की-सी अवश देह सँकरी बेंच
के किनारे पर ही ऐसी निश्चेष्ट करवट ले उठी कि
वह लपककर सहारा न देता तो शायद जमीन पर ही लुढ़क
पड़ती। प्रवीर ने एक बार झुककर कानों के पास ही
मुँह सटाकर कहा, ' 'निस मज्हदार!' ??
परिचित मीठी मादक सुगन्ध ने उसके गले में
बाँहें-सी डाल दी। स्वयं कली मुरदे-सी पड़ी ही
रही। उसका प्लान चेहरा द्वितीया के वक्र
चन्द्रालोक में भी स्पष्ट हो उठा। सौन्दर्य में
कैसी क्षमता है, कैसी अमोघ शक्ति है, यह देख
प्रवीर सहम गया 'यदि सा वनिता हृदयं
निहिता, स्व जप: स्व तप: स्व समाधिरिति' इस कथन
की वह कैसी हँसी उड़ाया करता था! किन्तु आज उसे
लगा कि ऐसी श्यामा सुन्दरी सचमुच ही
जपत्तप-समाधि को व्यर्थ सिद्ध कर सकती थी।
प्रवीर ने तीसरी बार लटका हाथ पकड़कर डरते-डरते
फिर हिलाया।
हाथ से तर्जनी में अटका की-रिग नीचे गिर पड़ा।
ललाट पर झुक आये बालों का गुच्छा आँखों पर झुक
आया, पर बेहोश कली वैसी ही सोती रही।
निश्चय ही उसके हिप्पी साथियों ने उसे एल. एस.
डी. की एक-आध गोली खिला दी थी! नहीं तो ऐसी
कुम्भकर्णी नींद भला किसी को आ सकती थी? यहाँ
उसे इस विवखावस्था में छोड़ना ठीक नहीं था। बारह
बज चुके थे। राह चलती मुखरा सड़क का कोई भी मनचला
उठाईगीर, बेंच पर पड़ी उस लावारिस कमनीय लाल
रेशमी पोटली को कश्वे पर डालकर जा सकता था, और
फिर अपना ही गृहदस्यु दामोदर रात-अधिा रात इधर
अर्थपूर्ण चक्कर लगाता रहता था। प्रवीर दो-तीन
बार उसे पकड़ चुका था।
प्रवीर ने चाबी उठा ली, कली को बेंच पर ही छोड़
उसने कमरा धीमे से खोल दिया। खुली खिड़की से आते
क्षीण आलोक में भी कोने में बिछी साफ़-सुथरी पलँग
दिख रही थी। वह बाहर गया। एक पल को शायद कुछ
झिझका पर जैसे मरीज आखें बन्द कर एक ही साँस में
कड़वी औषधि कण्ठत्तले घुटक लेता है, उसने लपककर
बटुए सहित कली को बाँहों में उठा लिया, और यल से
अपने कमरे तक लाकर पलँग पर लिटा दिया। फिर स्वयं
भी लड़खड़ाकर पलँग पर बैठ गया।
बाप रे वाप! देखने में फूल-सी हत्की लगनेवाली
लड़की कितनी भारी है! इतनी ही दूर लाने में
टाँगें लड़खड़ाकर सन्तुलन खो बैठीं।
छोटे भाई की मृत्यु और अनुजवधू की कलंककथा के
बाद वह उस कमरे में पहली बार आया था। छोटे भाई
के साथ वह इसी कमरे में बचपन में सोता रहा है।
एक बार सामान्य-सी लड़ाई ने उग्र रूप ले लिया था,
और उसने छोटे भाई का सिर पकड़कर इसी दीवार पर दे
मारा था। फिर उसकी कमीज़ पर गिरती रक्तधार को
देखकर अम्मा-बाबूजी के भय से इसी खिड़की से कूदकर
हवा हो गया था। आज उसी परित्यक्त कमरे की सहस्र
स्मृतियाँ उसे घेरकर नाचने लगीं। वह उठ गया।
लड़की कुछ खाकर ही आयी थी, इसमें कोई सन्देह नहीं
था। एक बार उसे सकरुण दृष्टि से देखकर वह बाहर
निकल आया। कुछ देर सोचकर उसने ताला खटकाकर बन्द
किया और चाबी अपनी जेब में डाल ली। कल उसके उठने
से पहले ही आकर ताला खोल जाएगा। नरभक्षी दामोदर
के पंजे से तो लड़की बची रहेगी, उसने सोचा। सारी
रात वह ठीक से सो नहीं पाया। ज़रा-सी झपक लगती तो
चौंककर उठ बैठता-कहीं ऐसा न हो कि वह सोता ही
रहे और बन्दिनी कमरे में ही बन्द पड़ी रह जाये।
हाथ की घड़ी जैसे कछुए की गति से चल रही थी।
राम-राम करते तीन बजे और वह चुपचाप चाबी का
गुच्छा लेकर निकल गया। आकाश में अभी तारे ही थे।
अलबत्ता इक्की-दुक्की कार और रिक्शा का आवागमन
आरम्भ हो गया था। उसने दबे पैरों जाकर ताला खोल
दिया। चाबी के गुच्छे को खुली खिड़की की सलाखों
से बड़े यल से डालने पर भी सीमेण्ट के फ़र्श पर
गुच्छा झन-झन कर झनक उठा। कमरे की स्वामिनी घोड़ा
बेचकर बेखबर सोती रही। वह फिर अपने कमरे में आकर
लेट गया। क्या जगने पर उस चरस-गाँजे की दम लगाकर
लौटी मूर्खा किशोरी को कुछ स्मरण रहेगा कि वह
दरबान की बेंच पर ही नशे में लड़खड़ाकर लुढ़क पड़ी
थी? तब उसे कौन उठाकर, कमरा खोल इतने यल से सुला
गया होगा? कैसे जान पाएगी वह? अच्छा ही ?एएजैसी
लड़की थी, कभी इसी प्रसंग का लाभ उठाकर उसे फँसा
सकती थी।
पौ फटने लगी, तो प्रवीर की आँखें लग गयीं। किसी
की आहट पाकर वह सहसा चौंककर उठ बैठा।
सिरहाने गम्भीर मुखमुद्रा बनाकर माया बैठी थी।
' 'लगता है रात बड़ी देर से लौटे, दो बार तो मैं
ही कमरे में झाँककर लौट गयी। अम्मा भी शायद कई
बार तुम्हें आकर देख गयीं। ''
' 'क्यों, क्या वात हो गयी जो बारीचारी सब मेरी
हाजिरी लेने आ गये?'' प्रवीर ने पूछा।
' 'बात भला कग हौती, अब इस घर में कभी कुछ अच्छी
बात होती है, जो पूछ रहे हो? पता नहीं, कैरो कल
जरा तुम्हारी ससुराल में रौनक रही, घर लौटे तो
फिर वही ढाक के तीन पात! घर पहुँचते ही दीदी और
जीजा में ऐसी ठनकी कि पूछो मत। जीजाजी ने
गरज-गरजकर पूरे कमरे का सामान बाहर फेंक दिया।
शादी में मिली अपनी घड़ी, तुम्हारा लाया
ट्रांजिस्टर, फाउण्टेनपेन। हाय, मैं तो मारे लाज
के जमीन में गड़ गयी। ऐसी-ऐसी गालियाँ दे रहे थे
दीदी को कि क्या कोई ताँगेवाला अपनी घोड़ी को
देगा। बाबूजी बरामदे में खड़े थे, चट से उठकर
भीतर चले गये।
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