नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
इतने लोगों के सामने उससे कुछ कहने या मूक
दृष्टि की विदा लेने में भी प्रवीर को संकोच
हुआ। किन्तु सुडौल बाहु पर बँधे बाजूबन्द के
लटकते जरीदार लाल डोरे को देखकर अपनी भावी वधू
का वर्हा हाथ पकड़कर दबा देने को वह व्याकुल हो
उठा। संसारी पाण्डेजी की कुटिलता, उनके घिनौने
मित्र राजा गजेन्द्र किशोर वर्मन का कुत्सित
व्यवहार वह भूलकर रह गया।
चलती गाड़ी के साथ सिर झुकाये चुपचाप खड़ी कुन्ती
की धानी छवि की स्मृति ही अन्त तक उसके साथ गयी।
इतने भारी खाने का प्रवीर को अभ्यास नहीं था।
कैसा आलस्य-सा घेरने लगा
था।
''रतनसिंह,'' उसने कहा, ''तुम हमें अगली पान की
दुकान पर छोड़ दो, वहाँ से पैदल चले जाएँगे।''
और वह पान की दुकान पर उतर गया। तीन-चार मोड़ के
बाद ही घर पहुँच जाएगा, शायद एक बीड़ा पान खाकर
दो-चार क़दम चलने से आलस्य भी दूर हो जाएगा।
उस बातूनी पानवाले को वह वर्षों से जानता था।
'उस छोटी-सी दुकान के ही वह आठ सौ रुपये माह
देता है। कैसे वर्षो पहले मिर्जापुर से भागकर वह
यहाँ चला आया और कभी-कभी कैसे गुण्डों का जमघट
वहाँ आ जुटता है' सुनाता वह जान-बूझकर एक बीड़ा
पान सजाने में आध घण्टा लगा देता। पर उस दिन
प्रवीर को उसकी बातों में उलझने का अवकाश नहीं
था। एक तो वैसे ही खिसियाहट हो रही थी, सवा
ग्यारह बज चुके थे, इसी से जान-बूझकर वह गाड़ी
छोड़ आया था। कार के शब्द से पूरा घर जग जाता और
सब क्या सोचते! पहले दिन ससुराल गया तो मुँह
फुलाया और दूसरे दिन रात के साढ़े ग्यारह बजा
दिये! पान के पैसे चुकाकर वह तेज क़दमों से चलने
लगा कि किसी ने पीछे से आकर पीठ पर हाथ धर दिया।
वह चौंककर मुड़ा तो देखा उसका मित्र घोष मुसकरा
रहा था।
''की हे, शशुरबाड़ी थेके बुझी?'' कन्धे पर झूलती
चुनी धोती को घोष ने हाथ में उतार लिया, ''वैसे
ऐसे शुभ कार्य से तू लौटा है, मुझे छूना नहीं
चाहिए। अशौच है यार, अभी-अभी राँगा दी की सास को
फूँककर चला आ रहा हूं-और जानता है वहाँ कौन
मिली?''
लैम्पोस्ट के पास ही दोनों खड़े हो गये। घोष का
फ्लैट आ गया था।
''तेरी टेनेण्ट मिस मजूमदार! मार्हरी यार, गजब
की है छोकरी। साथ में थे तीन-चार हिप्पी छोकरे
और एक छोकरी। घूम-घूमकर जलती चिताएँ ऐसे देख रहे
थे जैसे कोई प्रदर्शनी चल रही हो या कार्निवल!
मुझे देखा तो सकपका गयी। आयी थी श्मशान में और
साड़ी ऐसी पहनी थी जैसे ससुराल आयी हो। लाल
बनारसी। एकदम चिता की लाल लपटों से मैच करती
साड़ी। और जो हो, शी नोज हाऊ टु कैरी हरसेक।''
प्रवीर ने न कुछ पूछा, न कहा।
घोष कहता जा रहा था, ''पता नहीं तुम्हारे-जैसे
संस्कारी गृह में इतने दिन रहकर भी लड़की ऐसी
बुरी सोहबत में कैसे पड़ सकी! एक तो ये हिप्पी
विदेशी छोकरे जिसे संग लिये घूमेंगे, उसी को ले
डूबेंगे। पता नहीं कैसा ज़माना आ गया है,'' वह
किसी दार्शनिक बुजुर्ग के-से गम्भीर स्वर में
कहने लगा, ''हमने जैसे बुद्धिज्म, जैनिज्य के
उन्नति और अवनति के कारण रटे हैं, वैसे ही हमारी
अगली पीढ़ी अब शायद हिप्पीज्म के ऊत्थान-पतन के
कारण रटेगी और उस अवनति के कारणों में निश्चय ही
यह तेरी टेनेण्ट भिक्षुणी मिस मजूमदार भी एक
होगी। अच्छा गुडनाइट, अभी घर पहुँचते ही माँ फिर
नहाने को कहेंगी। ऐसे दिन मरी राँगा दी की सास
कि इतवार की छुट्टी ही चौपट कर दी।''
प्रवीर अन्त तक जिसकी स्मृति को बड़ी सजगता से
लाठी लेकर दूर खदेड़ आया था, उसी श्मशान-साधिका
रक्ताम्बरा भैरवी की नवीन ग्रतइr फिर आँखों के
सामने खिंच गयी। कैसा दुरूह गोरखधंधे-सा
व्यक्तित्व है। उस लड़की का! चेहरा ऐसा सुकुमार,
निष्पाप जैसे दूध के दाँत भी न टूटे हों, और
करनी ऐसी! अम्मा कह रही थीं वह पहाड़ में ही
जन्मी-पली है, तब क्या सरल पर्वतीय समाज से वह
कुछ भी ग्रहण नहीं कर पायी? कैसे माँ-बाप थे जो
इस कच्ची उमर में लड़की को रिसेप्शनिस्ट बनाकर
इतनी दूर भेज दिया?
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