नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
पाण्डेजी अपने मित्र को साथ लेकर पली को शायद
कहीं छोड़ आये थे।
''एई जे गौजेन, दैखो कैमीन राजा जामाई पेयेछी,''
(यह देखो गजेन्द्र, मुझे कैसा राजा दामाद मिला
है।)
प्रवीर ने उठकर वड़ी नम्रता से नमस्कार किया और
वनैले बुन्देलखण्डी अकेला (सुअर ) -सा ही हिंस्र
बदशकल वह चौकोर व्यक्ति उस पर टूट-सा पड़ा।
पहले उसने प्रवीर के प्रशस्त ललाट को चूमा, फिर
दोनों हाथ पकड़कर अपनी छाती पर धर लिये।
"आहा द्य ज्हूइड़ये गैली माँ लोक्सी "-(आहा छाती
ठण्डी हो गयी माँ लक्ष्मी) वह सकुचायी कुन्ती की
ओर देखकर बोला।
उस व्यक्ति को देखते ही प्रवीर को लगा कि यह
व्यक्ति तन का ही नहीं, मन का भी काला है। बंगाल
की प्राचीन नाटकमण्डली के 'यात्रादल' में
दुर्योधन बने एक पात्र ने बचपन में उसकी कई
रातों के स्वप्नों का पीछा कर उसे सहमाया था, आज
वही दुर्योधन जैसै बचपन के सपनों से निकलकर फिर
सामने बैठ गया था। अँगुलियों में रंग-बिरंगे
माणिक-मोतियों की अँगूठियाँ, सूर्यमुखी के
फूल-सी चौड़ी घड़ी, महीन जरीदार कुन्ती की धोती,
चुना कुरता और भयावह भालू-सा रोयेदार शरीर! कुली
को माँ-माँ पुकारता वह कूर नरव्याघ्र की-सी जिस
दृष्टि से उसे देख रहा था, वह निश्चय ही स्नेही
पुत्र की नहीं थी। कभी वह क्षुधातुर दृष्टि उसके
नीचे तक खुले गले पर निबद्ध होती, कभी आकर्षक
नितम्बों पर झूल रही करधनी पर।
वह बराबर बँगला ही बोले जा रहा था-"की है जामाई
बाबू-बाँग्ला शीखते पारले ना? (क्यों है जामाई
बाबू, बँगला नहीं सीख सके क्या?) इस घर में तो
बंगला ही चलती है पारे! चटपट सीख डालो। हमारी
कुन्नी का रवीन्द्र संगीत सुना या नहीं?''
खाने की मेज पर तो राजा गजेन्द्र किशोर ने अपना
मुखौटा ही उतारकर दूर धर दिया। कभी जंगली
आदिवासियों की भाँति मुर्रा का बड़ा-सा टुकड़ा
चिंचोड़-चिंचोड़कर खाने लगते, गले में किसी अबोध
बालक के बिब से बँधे चौड़े नैपकिन से ही नाक आँख
का पानी पोंछते, बड़ी-बड़ी चम्मचों में भरकर
मुर्रा की ग्रैवी पीते प्रशंसा के पुल बाँधने
लगते-"वाह, क्या लाजवाब मुर्ग बनाता है तुम्हारा
खानसामा! आखिर नवाब रामपुर के खास बाग में काम
कर चुका है, और बातों का भी ऐसा तेज-तरार है
जामाई बाबू कि एक दिन हमने पूछा, 'हजूर, आखिर
क्या-क्या मसाला डालते हो इसमें? जरा हमें भी
बता दो, अपने उड़िया महाराज को भी सिखा दे,' तो
जानते हो क्या कहने लगा? बोला, 'हजूर, इसके
मसाले पीसनेवाले और होते हैं, बनानेवाले और!"
"जब तक मिर्च से, आँख-नाक से, पानी न बहने लगे,
भला खाने का क्या मज़ा?"
"ओहे पाण्डे, एक दु मिष्टी दाओ देखी!" (अरे
पाण्डे, जरा मिठाई बढ़ाना इधर) और कटग्लास के ओबल
डोंगे से एक-एक कर भीमाकार 'खीर कदम्ब' सुरसा
के-से फैलाये विराट् मुख में ऐसे जाने लगे जैसे
झरबेरी हों।
उस व्यक्ति की खाने की क्षमता देखकर प्रवीर दंग
रह गया। जीवन का-सा ही
असंयम वह खाने में भी बरतता था। कभी काले-काले
भुजंग-से हाथों की मोटी सौसेज़-सी अँगुलियों से
नान भकोसता, कभी मिठाई और फिर मुर्रा के बड़े-बड़े
टुकड़ों पर बिरयानी का केसरिया थक्के का थक्का
डाल लेता। उसकी लोलुपदृष्टि गोल मेज पर सजे
तरहत्तरह के व्यंजनों की परिक्रमा-सी कर रही थी।
एक साथ ही प्लेट को वह ऐसे भरकर रख ले रहा था
जैसे तनिक-सा विलम्ब करने पर सब चीज़ें चुक
जाएँगी।
खाने के बाद टूथ पिक का पूरा डिब्बा ही लेकर वह
अलस तृक्ष अजगर की भाँति आरामकुरसी पर लद गया।
''जा खेयेछी!'' (कसकर खाया है) कहता वह गगनभेदी
डकारों के सिंहनाद से खाने का कमरा गुजाता,
नितान्त घिनौने ढंग से दाँत कुरेद-कुरेदकर
मांसमछली के अवशेष निकालता, जमीन पर ही थूकने
लगा।
प्रवीर का शरीर सिहर उठा। यह ठीक था कि वह स्वयं
आमिषभोजी था, किन्तु संस्कारी गृह का वह सभ्य
युवक सुपारी का टुकड़ा भी सशब्द नहीं कटका सकता
था। यह चिक्षुर-सा महादानव बिना हाथ-मुँह धोये
टाँग फैलाकर गृह की माता-पुत्री के सम्मुख ही
जिस निर्लज्जाता से पड़ा जुगाली कर रहा था, वह
देखकर ही उसे घृणा होने लगी। क्या इस गृह में
मर्यादा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं?
''ओहे पाण्डे, आमी ऐखोन तोर बँगलियाय गिये एकटू
शोबी अली!''
(अरे पाण्डे, अब मैं तेरी बँगलिया में जाकर जरा
सोऊँगा-समझा)
''मुझे भी आज्ञा दीजिए,'' प्रवीर भी उठ गया,
''साढ़े दस बज गये हैं, पहुँचते-पहुँचते ग्यारह
बज जाएँगे।''
''सुन्दरसिंह, बचीसिह, भोला, महाबीर-''पाण्डेजी
ने एक साथ ही चार मृत्यों का आह्वान किया और
चारों हाथ बाँधे खड़े हो गये।
''जाओ, रतनसिंह को बोलो काली फियेट गैराज से
निकालकर कुँअर साहब को छोड़ आये।''
प्रवीर इस सर्वथा नवीन सम्बोधन को सुनकर चौंका।
एक ही दिन में पाण्डे जी ने जैसे किसी जादुई छड़ी
के स्पर्श से उसे आपाद-मस्तक बदल दिया था।
उसे छोड़ने पूरा परिवार गेट तक चला आया। कुन्ती
ने बढ़कर बड़ी अन्तरंग आत्मीयता से कार का द्वार
बन्द किया और कार स्टार्ट होने पर भी सटकर खड़ी
रही।
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