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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


सत्रह


"चलिए, शायद अब आपके डैडी के मित्र आ गये होगे,'' प्रवीर ने कहा।
"ओ डैडी के मित्र!'' कुन्ती जोर से हँसी। "यू डोण्ट नो हिम, आप क्या सोचते हैं, डैडी ने आपको उनसे मिलाने रोक लिया था? वे तो मुझे और आपको एकान्त देना चाह रहे थे।''
वह उठकर प्रवीर के साथ सटकर ऐसे खड़ी हो गयी, जैसे कह रही हो, 'मूर्ख! इतना भी नहीं समझे? इस एकान्त में तुम्हें और लायी किसलिए हूँ।'
उसके शरीर से आती तीव्र सुगन्ध का भभका प्रवीर को सहसा उन्मत्त कर गया। कली भी दो-तीन बार उसके एकदम पास ऐसे ही सटकर अपनी सुगन्ध छोड़ गयी है, पर कितना अन्तर था दोनों सुगन्धों में! एक थी मन्दी कस्तुरी-सी गमक और दूसरी बँगलौरी अगरबत्ती के तीव्र भभके से दम घुटाने लगती थी।
कुन्नी और भी निकट सटकर चलने लगी, लग रहा था अब वह स्वयं ही प्रवीर का हाथ पकड़कर अपने कन्धे पर धर लेगी। हड़बड़ाकर प्रवीर ने चाल तेज कर उसे पछाड़ दिया। गेट की रोशनी देखकर वह आश्वस्त हुआ।
आज तक वह प्रगतिवादी समाज के ऐसे ऊँचे तबके में रहकर नौकरी करता रहा था, जहां तर्जनी के सामान्य आदेश से ही एक-से-एक सुन्दरी सेक्रेटरी को करतल पर बिठा सकता था। काबुल के प्रसिद्ध 'खैबर' होटल में ऐसी ही एक सुन्दरी अरब किशोरी उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी थी। कुवैत में उसके पिता के तेल के कुएँ दिन-रात सोना उगलते थे, काबुल में वह अपने मामा के पास छुट्टियाँ बिताने आयी थी। बड़ी-बड़ी भूरी आँखों और सुनहले वालों की वह सौन्दर्य-साम्राज्ञी, उसे एम्बैसी के ही एक सहभोज में मिली थी। उसकी खतरनाक फरेबी मोर्चाबन्दी से भी वह अपनी जवानी को दाँतों के बीच जीभ-सी सेंतकर निकाल लाया था। जहाँ तक लड़कियों का प्रश्न था, वह निश्चय ही अब तक निरामिषभोजी था। उस कठोर संयम के पश्चात् भावी पली का आकर्षक सान्निध्य उसे बार-बार लुभाने लगा, पर तनाव मैं खींची जा रही उत्तेजित शिराओं को उसने कसकर चाबुक मार दिया। लम्बी-लम्बी त्यों भरकर वह बड़ी अभद्रता के साथ चल रही संगिनी को पीछे छोड़ गया।

कुन्नी के डैडी अभी भी लौटकर नहीं आये थे। गोल कमरे में जाकर प्रवीर बैठा
ही था कि कुन्ती आ गयी।
''बाप रे बाप, आप तो ऐसे भागे कि जैसे पीछे पागल कुत्ता आ रहा हो!'' 
''बड़ी देर हो गयी, देखिए ना आठ बज गये। सुनिए, एक प्याला चाय या काँफी मिल सकेगी क्या?'' उसने अनायास ही कह दिया।
''क्यों नहीं मिल सकती। कौन-सी ऐसी चीज है जो आपको नहीं मिल सकती,''-वह अर्थपूर्ण मुसकान बिखेरती भीतर चली गयी।
थोड़ी ही देर में वर्दीधारी बैरा भारी-भारी चाँदी के बरतनों में चाय लेकर आ गया। यह चाँदी का टीसेट भी क्या मुझे 'इम्प्रेस' करने को मँगवाया गया है? मन-ही-मन सोचता प्रवीर मुसकराने लगा।
''क्यों, हँसी क्यों आ रही है आपको? क्या चाय अच्छी नहीं वनी? बननी तो अच्छी ही चाहिए, कल ही डैडी के चाय बागान के एक मित्र दे गये हैं।''
''अच्छा?'' प्रवीर को अपनी उस कभी परममूर्खा और कभी चतुरा भविा पली को चिढ़ाने में आनन्द आने लगा था, ''क्यों, आपके पिता के कोई 'ब्रुअरी' में भी मित्र हैं क्या?'' उसने दबी मुसकान के साथ चुटकी ली। यही दबी मुसकान उसका सबसे बड़ा आकर्षण था। अरब-सुन्दरी ताहिरा उसकी इसी मुसकान की सौ-सौ तसवीरें उतारकर साथ ले गयी थी।
''आर यू इण्टेरेस्टेड? वाह, अच्छे आदमी हैं आप! गाँव-गाँव के खा गये घर के माँगें भीख। आज की दावत ही में पता नहीं डैडी की कितनी शैम्पेन नालायक कण्ठों के नीचे उतरी हैं, और हमने तो डर से आपसे पूछा ही नहीं। आप लोग ठहरे कुमाऊँ के कट्टर पण्डित, डैडी ने एकदम सबकुछ छिपा दिया था। बोलिए, क्या लीजिएगा?''
वह किसी सुप्रसिद्ध बार की सुन्दरी साकी बनी उसकी ओर ढल गयी।
''मैं तो मज़ाक़ कर रहा था। मुझे ऐसा अभ्यास नहीं है!''
''यह तो मैं समझ ही गयी थी। अभ्यास होता तो...'' उसने हँसकर अपना वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।
''तो शायद मैं चाय नहीं माँगता, क्यों?''
''नहीं,'' उसका चेहरा प्लान हो गया, ''तो शायद आप इतने रूखे नहीं होते। शायद डैडी आ गये,'' वह द्वार की ओर बढ़ गयी।

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