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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


विचित्र व्यक्ति थे पाण्डेजी। कभी एकदम वालक का-सा निश्छल व्यवहार और कभी कपटी काक-सी मुद्रा! निश्चय ही वह व्यक्ति कभी अपने परिवार की सीमित परिधि लाँघकर बाहर नहीं जा सकता। अब प्रवीर भी उसी परिवार का नवीन सदस्य था, इसी से पाण्डेजी बार-बार उसे आंखों-ही-आंखों में ऐसे पिये जा रहे थे कि स्वयं प्रवीर को अम्माचाबूजी के सामने अजीब खिसियाहट होने लगी थी।
पिता-माता, बहन-बहनोइयों की उपस्थिति में प्रवीर कुन्नी से आधी बात भी नहीं कर पाया है, यह शायद पाण्डेजी ने देख लिया था। वैसे भी अपनी स्वार्थसिद्धि के साथ ही अवांछित अतिथियों को भगाने में पाण्डेजी को कमाल हासिल था।
''मैं तो आप सबसे ही रात का खाना खाने का अनुरोध करता, पर बड़ी रात हो जाएगी। गजेन्द्र जरा देर से खाना पसन्द करता है, और जरा भद्दा लगेगा कि उससे पहले आप सबको खिला दूँ।''
उन्होंने बड़े ही चातुर्य से भूमिका बाँध-बाँधकर अतिथियों को विदा कर दिया।

असल में गजेन्द्र का तो बहाना था। वह आ अवश्य रहा था, पर यदि उसका स्वयं अपना नया दामाद होता, तब भी शायद वह उससे मिलने की उत्सुकता नहीं दिखाता। वह तो मित्र के साथ उसकी बँगलिया में जश्न मनाने आ रहा था। उसके खाने-पीने का प्रबन्ध पाण्डेजी पहले ही छोटी बँगलिया में कर आये थे। वह बँगला उनकी कोठी से दूर इसी प्रयोजन से बनाया गया था। पाण्डेजी के एक-से-एक मोटे असामियों का अतिथिगृह उनका सबसे बड़ा आकर्षण था। राजनीतिज्ञ, पत्रकार, व्यवसायी अपनी वानप्रस्थ की अवस्था को ताक पर धरकर यहाँ मनमानी रँगरेलियाँ मना सकते थे। उसी छोटे कमरे में सुरा-सुन्दरी और विलासपूर्ण छपन प्रकार के तामसी भोज्य पदार्थों के अपूर्व तोहफे भेंट कर कुटिल पाण्डेजी लाखों का वारा-न्यारा करते थे। न जाने कितने प्रोष्ठो उनकी मुट्ठी में बन्द रहते, जिससे जब जाहें पानी भरवा लें। जब तक कलकत्ता में लौरीन थी, तब तक उन्हें अपने व्यवसाय की कोई चिन्ता नहीं थी। पैसा उनके हाथ का मैल था। फिर सबसे छोटी पुत्री के विवाह में कोई क़सर बाक़ी न रहने पाये, यही उनकी उस्कट अभिलाषा थी। ऐसा अपूर्व जामाता क्या सहज ही में जुट सकता था।

जान-बूझकर ही प्रवीर को कुन्नी के साथ एकान्त में छोड़ पाण्डेजी पली को लेकर बाहर घूमने चले गये। इतने सारे अतिथियों से भरा गोल कमरा खाली हो गया, तो संकोची स्वभाव न होने पर भी प्रवीर सोफ़े के कोने में सिमटकर बैठ गया।
कुन्ती बड़ी स्वाभाविकता से हँसकर खड़ी हो गयी।
''आप एक सेकेण्ड बैठें, मैं यह साड़ी बदल आऊँ। इतनी भारी है कि सँभलती ही नहीं। फिर आपको अपना नया स्विमिंग पूल दिखाने ले चलूँगी। 'इट इज ए ब्यूटी!' कल ही डैडी ने उसमें पानी भरवाया है।''
वह चली गयी, तो प्रवीर ने दोनों टाँगें फैलाकर सिगरेट जला ली। शायद साड़ी
बदलकर आने पर वह अपने मौलिक व्यक्तित्व में लौट आएगी।
एक हलकी धानी दूरी सूती साड़ी में वह सचमुच ही कैसे चोला बदल आयी थी। उसके शोर वर्ण पर धानी रंग खिल उठा था।
''वाह! बड़ा सुन्दर रंग है, और आपको सूट भी करता है,'' प्रवीर ने चित्त में उमड़ी, लाल साड़ी का आँचल फहराती दुस्साहसी किशोरी की मूर्ति को भगाने के लिए ही शायद सम्मुख वैठी कुन्ती की प्रशंसा का पहला पुष्प निवेदन किया।
''जानते है बँगला में इसे क्या कहते हैं? 'कोची कौला पातार रंग'-केले की कोंपल का रंग। मुझे तो इन बंगाल की धनेखाली दूरी साड़ियों के सामने बनारसी साड़ियाँ भी फ़ीकी लगती हैं,'' वह मुसकराती हुई उठ खड़ी हुई, ''चलिए ना स्विएमिंग पूल देख आयें।''
पान के पत्ते के आकार में वँधी जलराशि नियोन बत्तियों के नीले प्रकाश में झलमला रही थी। संगमरमर की बेंच पर ही कुन्ती इठलाकर बैठ गयी।
''आइए ना, बैठ जाइए, कब तक खड़े रहिएगा।''
प्रवीर उसके पास ही बैठ गया। उसकी गोरी पुष्ट कलाई पर पड़ा मगरमुखी कंकण झलमला रहा था। धानी साड़ी की आड़ी-तिरछी डोड़ियाँ बिजली के प्रकाश में अपनी ही छाया-प्रतिच्छाया की धूप-छाँह की-सी रेखाएँ बना-मिटा रही थीं, शंखग्रीवा में पड़ी पतली सोने की चेन खुले गले के धानी ब्लाउज पर सोने के बाल-सी चमक रही थी। ऊँचा बनाया गया जूड़ा शायद इधर-उधर चलने-फिरने से कुछ थिथिल होकर कन्धे पर उतर आया था, और इसी से चेहरे का बनावटी मुखौटा जैसे कान की कमानी से कुछ नीचे खिसक आया था।
प्रवीर की सूक्ष्म दृष्टि ने मुखौटे के भीतर से झाँकता असलियत का नैन-नक्श देख लिया। लेप-प्रलेप से मुत्ह होने पर चेहरा निर्दोष लगेगा, बड़ी आँखों में बुद्धि की दीप्ति चाहे न हो, जननी का वात्सल्य अवश्य था। और जो हो, यह स्वस्थ शरीर उसे स्वस्थ सन्तान का पिता वनाका, इसमें कोई सन्देह न था। रिकेटी, दुबले-पतले रिरियाते बच्चों को वह देख नहीं सकता था। यह दीर्घागी, दुर्बल शिशु की जननी कभी नहीं बन सकती। हो सकता है आलसी गहिणी बन जाये। उसके मोटे विलासप्रिय अधर, शरीर के कुछ-कुछ पृथुल बनने का अभी से रुझान, उसे कुछ वर्षो की लापरवाही से ही अनाकर्षक थुलथुली गृहिणी बना सकते थे। वह निश्चय ही उन कुमारिकाओं के दल की थी, जिन्हें पिता का वैभव-सम्पन्न गृह समय से पूर्व ही यौवन के द्वार पर खड़ा कर देता है। समस्त व्यंजन करतल पर रहते भी, जिन्हें चटोरी जिह्वा को संयम के अंकुश से साधकर बिना चुपड़ी रोटी खाकर सन्तोष करना पड़ता है। पर जहाँ विवाह हुआ, गृहस्थी की रस्साकशी उन्हें अमानवीय धैर्य से जमीन पर पैर ग्हड़े डाइटिंग की मोटी रस्सी से बँधे, खिंचते खिलाड़ियों की भाँति ही अपने दल की ओर खींच ले जाती है। फुटबाल के पिचके ब्लैडर की ही भाँति हवा पाते ही यह भी एक
दिन तन उठेगी, यह प्रवीर समझ गया था। कपास के फूलसी हलकी दूसरी तन्वंगी उसे फिर कल्पनालोक में खींचकर अँगूठा दिखाने लगी। वह खीझकर उठ गया।

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