नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
पर फिर भी कमरे में जाकर वह उन बिसरी अधूरी
पंक्तियों के टुकड़े याद करने लगा।
मृङ्गश्यामल-कुन्तला च जलजग्रीवोऽप...
वह फिर बौखलाकर एक के बाद एक कितनी ही सिगरेटें
फूँकता चला गया।
पाण्डेजी ने उस दिन बड़े उत्साह से शायद आधा
कलकत्ता ही न्यौत दिया था।
''हाय, मैं ऐसा जानती तौ और बढ़िया साड़ी पहनकर अतिा
अम्मा,'' माया अपनी साधारण रेशमी साड़ी देखकर स्वयं
ही गड़ी जा रही थी। वहाँ तो एक-से-एक सजी-ट्टग्जी
अप्सराएँ आयी थीं। कुन्ती तो उस दिन पहचान ही में
नहीं आ रही थी। लगता था किसी पेशेवर हेयर ड्रेसर
से उसने अपना लोपामुद्रा का-सा जड़ा बनवाया है। बड़ी
आँखों को भला काजल से चीरकर और बड़ी बनाने का क्या
प्रयोजन था, प्रवीर की समझ में नहीं आया। एकदम
कलाकेन्द्रम के रामायण की सीता बनी वह नाटकीय
मुद्रा में दायें-बायें लजाकर डुलकी जा रही थी।
जयामाया ने उसे साथ लायी साड़ी पहनाकर आँचल मेवों
से भर दिया। अम्मा ने बड़े गर्व से पुत्र को सुनाकर
पति से कहा, ''एकदम महालक्ष्मी लग रही है?''
पर उस लाल साड़ी को देखते ही एक अदृश्य लम्बी छरहरी
पीले चेहरे की किशोरी बार-बार कुन्ती को धक्का
देकर प्रवीर के सम्मुख हँसती खड़ी हो जा रही थी।
'तन्वङ्गी गजगामिनी चपलदृक् सङ्गीतशिल्पान्विता'
'काबुलीवाला, गोइंग टू फ़ादर-इनकॉज हाउस?'
भय से सचकित होकर प्रवीर सचमुच ही इधर-उधर देखने
लगा था! क्या पता कहीं यहीं न धमक पड़े! उस
आधी-तूफ़ानन्सी वेगवती दुस्साहसी लड़की के लिए सब
कुछ करना सम्भव था।
पाण्डेजी सत्यजित राय की-सी फ़ोटो यूनिट लेकर फ्तैश
बल्व चटका-चटकाकर सबको चौंका रहे थे। कभी मूवी
कैमरा लेकर दोनों मोटे-मोटे थम्बकथैया पैर चौड़ाई
में फैलाते कथकलि नर्तक की भाँति आगे बढ़ते, कभी
वैसे ही ताल में सधे पैर रखते दूर तक पीछे चले
जाते।
''कुन्नी बेटी, जरा दायें, प्रवीर तुम थोड़ा आगे,
ना-ना कुछ पीछे, 'टु द लेफ्ट, दैट्स राइट,''' और
फिर फ्लैश बल्व की चटाक-चटाक कर चुटकियाँ बजने
लगतीं। न जाने कितनी तसवीरें खींची गयीं, कितनी
बनावटी मुसकाने बनीं और बिगड़ी, कुन्ती ने एक के
वाट एक इतने गाने गाये कि अन्त के गीत में आवाज़
फटकर रह गयी।
ठीक चलने का समय हुआ, तो पाण्डे जी ने जामाता को
साग्रह रोक लिया।
''सभी मेरे परमप्रिय मित्र गजेन्द्र तो आये ही
नहीं, राजा गजेन्द्र किशोर वर्मन। अभी-अभी उनका
अगरतला से फ़ोन आया है, रात को पहुँच रहे हैं। आ भी
रहे हैं प्रवीर से ही मिलने। इन्हें हम रात का
खाना खाने के बाद ही छोड़ पाएँगे अब! आप गाड़ी की
चिन्ता न करें। दो-दो गाड़ियाँ पड़ी हैं, ड्राइवर
छोड़ आएगा।''
दो-दो गाड़ियों का व्यर्थ प्रसंग छेड़कर सरल बाबूजी
को प्रभावित करने की भावी श्वसुर की कुचेटा देखकर
प्रवीर तन गया। एक बार जी में आया कि उनका अभद्र
प्रस्ताव ठुकराकर रुखाई से चल दे। पर दूसरे ही
क्षण उसने कुन्ती की याचकतापूर्ण आँखों में नवीन
प्रेम की झलक को देख लिया।
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