लोगों की राय

नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

16660 पाठक हैं

हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


पन्ना की आँखों में आँसू छलक आये थे। जब-जब वह इस हठीली छोकरी को छाती से लगाने बढ़ी थी, तब-तब वह उसे एक प्राणान्तक घूँसा मारकर दूर ढकेल देती। 
''ठीक है बेटी,'' उसने शान्त स्वर में कहा था, ''आज तुमने इन साड़ियों को ठुकरा दिया, पर एक-न-एक दिन हर लड़की की जिन्दगी में ऐसा दिन आता है, जब वह बनारसी साड़ी पहनकर ही सजने-धजने को स्वयं तरसने लगती है।''
शायद आज कली के जीवन का वही दिन आ गया था, जब वह अपने अवांछित कौमार्य के काल्पनिक मुक्ति द्वार पर लाल बनारसी साड़ी में दुलहन बनी स्वयं ही अपने प्रतिबिम्ब पर न्यौछावर हुई जा रही थी। बहुत पहले नैनीताल के लन्दन हाउस की सीढ़ियों पर फैले एक तिब्बती लामा से उसने उसी के कान में पड़े लाल मूँगे का जोड़ा खरीदा था, और काठमाण्डू से उसके एक विदेशी मित्र ने उसे दो मूँगों के बीच गुँथा एक चौकोर ताँबे का तावीज़ ला दिया था। काले मोटे डोरे में गुँथा वही तावीज़ उसने कण्ठ में लटका लिया। कानों में मूँगे साड़ी के लाल रंग से होड़-सी ले रहे थे। और वह रक्तिम आभा ताँबे के अठनिया तावीज़ पर उतर आयी थी। वास्तव में उसकी कलात्मक रुचि अनुपम थी। बीच में माँग निकालकर उसने कटे वालों को कानों के पीछे ले जाकर एक हड्डी के क्लैम्प से कसकर छोड़ दिया। केशों के गहन पाश से उम्मुक्त कर्णद्वय लाल-लाल प्रवाल के भार से स्वयं ही रक्तिम हो उठे थे। एक बार कली अपना वह अग्रिगर्भा रूप उसे दिखाना चाह रही थी-'देख, साड़ी ऐसी पहनी जाती है। तुम्हारी कुन्ती के कण्ठ में पड़ी उन्तीस तोले की असली सोने की रामनवमी क्या मेरे इस अठनिया ताँबे के तावीज़ के ताम्रतेज़ के सम्मुख टिक सकती है?'

पर अभी तो वह शायद सो ही रहा होगा। वैसे चाहने पर वह बड़ी धृटता से जाकर उसे कमरे में ही घेराव में बाँध सकती है। उसका द्वार खुला रहता है, यह वह कई बार देख चुकी है। पर बीच में ही कहीं दानव दामोदर मिल गया तब?
मरे मन से कमरे में ताला लगाकर वह चाबी बटुए में रख ही रही थी कि किसी की आहट पाकर चौंकी। हाथ की सिगरेट बाहर फेंकने वह स्वयं ही बरामदे में चला आया था, या कली की इच्छा-शक्ति ही उसे बाहर खींच लायी थी।
कली ने एक पल की भी देर नहीं की।
''ए काबुली वाला,'' वह हँसती हुई उससे सटकर खड़ी हो गयी, ''गोइंग टु फ़ादर-इन-लॉज हाउस?''
पहले प्रवीर हतप्रभ-सा रह गया, फिर दूसरे ही क्षण उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। कैसा दुस्साहस है छोकरी का! कुन्ती की ही साड़ी पर हाथ साफ़ कर दिया और फिर पहनकर उसे ही दिखाने आयी है। उसकी ऐसी चोरी और सीनाज़ोरी देखकर वह स्तब्ध रह गया।

शायद उसके चेहरे की खीझ को कली ने देखते ही समझ लिया। वह किसी शैतान बच्ची की भाँति खिलखिला उठी, ''यह तुम्हारी कुन्ती की साड़ी नहीं है जी। एक ठो हम भी अपने लिए ले आये थे। कोई कॉपी राइट है क्या? मुँह क्यों फुला लिया। पर 'रेट सूट्स मी' क्यों है ना?''
और फिर वह हँसती-हँसती सर्र से किसी विदेशी बैले की भाँति हवा में तैरती बाहर निकल गयी।
बिजली की चमक दिखाकर वह क्षणिक प्रभा से प्रवीर को सचमुच चौंधिया गयी थी।

लड़की का सौन्दर्य अपने समस्त अवगुणों के बावजूद दिव्य था, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसकी चाल, सतर कन्धों की गढ़न, सादे ढंग से सँवारे गये काले केशगुच्छ, साड़ी पहनने का सलीका और उससे भी बढ़कर लम्बे ओंचल को लहरा-लहराकर कैसे नपे-तुले क़दमों से चलती थी, जैसे कोई विदेशी राजमहिषी अपने कोरोनेशन के लिए चली जा रही हो, और पीछे लटकता लम्बा आँचल थामे चल रहे हों दो अदृश्य पेज-ब्बॉय!

न चाहने पर भी बहुत दिनों पूर्व पढ़े एक श्लोक की पंक्तियाँ उसके कानों में बजने लगीं-

'तन्वङ्गी गजगामिनी चपलदृकृ सङ्गीतशिल्पान्विता
नो हस्वा न बृहत्तराD थ सुकृशा मध्ये मयूरस्वरा।
पीनश्रोणि पयोधरा सुललिते जड्डे वहन्ती कृशे'
अचानक उसके दोनों कान लाल होकर दहकने लगे। कैसी दुर्बलता थी यह उसकी! ऐसी सस्ती लड़की जिसका स्पर्श होने पर भी शायद उसे नहाना पड़ता, उसी के लिए इस श्लोक की आवृत्ति!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book