लोगों की राय

नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

16660 पाठक हैं

हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


सोलह


उस विदेशी दल का क्षणिक सान्निध्य भी उसे ईश्वर का-सा नशा सुँघाकर झुमा देता था। फिर क्यों गयी थी वहाँ, वह मन-हीं-मन सोचती उत्तरपाड़ा की बस में चढ़कर बैठ गयी। क्या करेगी उत्तरपाड़ा जाकर। कौन था वहाँ? कोई भी नहीं.. फिर क्या करेगी वहाँ जाकर...क्यों...उसी बस स्टॉप से अलीपुर वापस चली आएगी...पगली कहीं की, इससे तो कहीं और चली जाती..कहां?...वहाँ? जहाँ झलाकर नयी बनायी गयी रामनवमी की प्रदर्शनी चल रही थी, या लौरीन आण्टी के यहाँ...कहीं जा सकती थी वह...इतने बड़े शहर में क्या कहीं भी ऐसी दो आँखें थीं, जो उसे देखकर प्रसन्नता से चमक उठतीं?...क्या विधाता ने उसे इसीलिए बनाया है कि निर्दयी संसारी उसे अपने स्वार्थ के लिए निर्जीव शटलकॉक की भाँति इधर-उधर उछालते रहे? क्या वह जीवन-भर दूसरों के लिए ही विवाह की साड़ियाँ खरीदती रहेगी?...जिस रविवार को पूरा गृह आमोद-प्रमोद के मांगलिक उस्तव में आकण्ठ डूबा होगा, वह श्मशान में पिकनिक मना रही होगी!

चलती बस में वह स्वयं ही हँसने लगी। पास बैठी वृद्धा पारसी महिला उसे घूर-घूर कर देखने लगी। वह बीमार-सी पीली सुन्दरी लड़की उसे कुछ एजॉर्मल-सी लगी। कैसे हँसे जा रही थी। क्या पता किसी पागलखाने से भागकर चली आयी हो। पारसी महिला ने सहमकर पीठ फेर ली।

एक के बाद एक बस बदलती कली घर पहुँची, तो रात हो गयी थी। बगल का पैकेट अभी जाकर ही अम्मा को दे आएगी। एक अनजानी छोटी दुकान पर ही इतनी सुन्दर साड़ी मिल जाएगी, उसे आशा भी नहीं थी। एकदम फ्लेमरेड। उस पर चौड़ा खरीदार आँचल, न बेल न बूटी। काउण्टर पर एक-सी दो साड़ियाँ धरी थी-ठीक जैसे जुड़वाँ बहनें हो। कली को न जाने क्या सनक सवार हुई कि दोनों खरीद ली।

वह साँवली है तो क्या हुआ। लाल रंग जितना साँवले पर खिलता है, उतना क्या कभी गोरे पर खिल सकता है? स्मथाल सुन्दरियों की काले कोवरा-सी चिकनी काली पीठ पर थिथिल जूड़े पर लगा रक्त जवा का पुष्प कितना सुन्दर लगता है! पिकनिक के दिन यही साड़ी पहनेगी और चलते-चलते उसे भी दिखा देगी 'ए मिस्टर, अकेली तुम्हारी कुन्ती ही नहीं पहन सकती, ऐसी साड़ी। देख लो, कौन अधिक सुन्दरी लगती है, गोरी या काली?'
वह मन-ही-मन मुसकराती अपनी साड़ी कमरे में धर आयी, फिर हाथ का दूसरा पैकेट नचाती, हँसती गोल कमरे में पहुँच गयी। पूरे परिवार की गोठी चल रही थी। प्रवीर न जाने किस बात पर ठहाका लगाकर हँस रहा था। उसे ऐसे हँसते देख कली आश्चर्य से ठिठककर खड़ी रह गयी। अच्छा, यह कूर व्यक्ति ऐसे हँस भी सकता है! पर अचानक कली को कमरे में आविर्भूता देखकर उसकी हँसी आरोह ही में सूखकर रह गयी। वह फिर गुमसुम हो गया। चेहरे पर उभरी खीझ की रेखाएँ देखकर कली मुसकराकर बढ़ गयी।
''लीजिए अम्मा,'' उसने साड़ी का पैकेट अम्मा की गोदी में डाल दिया।
''देखिए, पसन्द की चीज है या नहीं?''
''आओ-आओ बेटी,'' अम्मा ने चश्मा लगा लिया और पैकेट खोलने लगीं, ''मैं जानती थी कि तुम जरूर ले आओगी। वाह, एकदम ऐसा ही रंग चाह रही थी में क्यों, है ना जया?' 'पर कली को देखते ही जया फिर अटेदान में खिंचकर काठ का सिपाही बन गयी थी।
''हूँ'' कहकर वह चुप रह गयी। निर्लज्ज दामोदर उस क्षण-क्षण में नये रूप धरनेवाली अष्टभुजा की-सी तेजोमयी सुन्दरी को पूरे जा रहा था।
''चल रही है ना इतवार को?'' अम्मा ने पूछा।
''नहीं अम्मा,'' कली जान-बूझकर ही माया से सटकर बैठ गयी। वैसे अम्मा के पास भी बहुत-सी जगह खाली थी, पर माया से सटकर उसका सुदर्शन भाई जो बैठा था। कली का आँचल क्षण-भर को हवा में फहराता माया की पीठ से होकर प्रवीर के कन्धे को छू गया। कली ने कनखियों से अपने बड़े यत्न से फैलाये गये आँचल की प्रगति देखी और मुसकराने लगी।
''बड़ी सस्ती मिल गयी अम्मा, पौने चार सौ की है-असल में अब बनारसी साड़ियों की खूब स्मगलिंग चल रही है, इसी से कुछ सस्ती मिल गयी है।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book