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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


पर माया के जाते ही कली छलाँग लगाकर बाहर निकल गयी। न उसने रूखे, उलझे बालों पर कंघी फेरी, न दर्पण की ओर ही देखा। सुबह की भूखी थी, प्यास से गला सूखा जा रहा था। कहीं एक प्याला चाय का भी जुट जाता, तो शायद कनपटी पर चल रहे हथौड़े बन्द हो जाते। पर द्वार पर ताला मारकर वह निरुद्देश्य भटकने चल पड़ी। आज उसका हाफ डे था, पर दिन-रात धमा-चौकड़ी मचा, त्रैलोक्य दर्शन की एक-एक गोली मुख में धर अल्पकालीन मृत्यु की निश्चेष्ट करवट में सो जानेवाले अपने भूत-पिशाचों के दल में स्वयं डाकिनी बन सम्मिलित होने वह अचानक असमय ही उनके होटल में पहुँच गयी। पॉल ने एक चीख मारकर उसे बाँहों में उठा लिया, ''हे केली, तुमने अपना पता दिया होता तो हम तुम्हें कब का किडनैप कर ले आये होते। वेलहैम आज एकदम ठीक है। कल डिस्वार्ज हो जाएगा। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को ही श्मशान-दर्शन का आदेश गुरुजी ने दिया था। बस रविवार को श्मशान में दिन-भर पिकनिक और रात को साधना-चूनी-चूनी माई लव!''
वह बेतरतीब से फैले दो-तीन शेपलेस चोगों के ऊपर औंधी होकर मुरदे-सी पड़ी थी। कली को यह विदेशी लड़की बहुत पहले मुक्तेश्वर लैब में देखी, क्षय-रोग के कीटाणुओं द्वारा जबरन रोगिणी बनायी गयी सफ़ेद चुहिया-सी लगती थी। दिन-भर वह मुरझायी खोयी रहती, पर सच्चा की आगमनी के साथ-साथ अपनी गोली मुख में रखते ही वह बुलबुल-सी चहकने लगती।
''चौदह वर्ष की थी तब से ही एडिक्ट है यह,'' वेलहैम ने कली को बताया था।
करोड़पति पिता की इकलौती पुत्री चूनी के नेतृत्व में ही यह दल भारत आया था। जिन प्रवासी योगीराज ने उसे शिक्षा दी थी, उन्हीं के प्रभावशाली सिफ़ारिशी पत्रों का पुलिन्दा उसे बार-बार कस्टम के दुरूह चक्रव्यूह से बचाकर सकुशल बाहर निकाल लाता। दल के पाँचों पाण्डव उसकी मुट्ठी में बन्द थे, जिन्हें समय-समय पर वह ढील देकर इधर-उधर घूमने छोड़ देती। पर अपोलो-सा सुन्दर नीली आँखोंवाला पॉल सदा उसकी मुट्ठी में वन्द रहता।
कली के प्रति अपने उस सर्वाधिकार सुरक्षित प्रेमी का आकस्मिक रुझान शायद इधर उसने देख लिया था। श्मशान-यात्रा के प्रस्ताव को उसने जान-बूझकर ठुकरा दिया, ''तुम लोग जाओ, मेरी तबीयत ठीक नहीं है,'' वह पीठ कर लेटी ही रही।

फिर भी पॉल बड़े दुस्साहस से कली के कान के पास झुक आया और फुस-फुसाकर कहने लगा, ''तुम शनिवार को ही यहाँ आ जाना। फिर तड़के ही उठकर चल देंगे।''
फुसफुसाहट के साथ ही क्षुधातुर अधरों के स्पर्श से कली का कान सिहर उठा। वह झपक से उठ गयी, ''नहीं, मैं इतवार को ही आकर तुम्हें वहाँ ले चलूँगी, सिस इट वाज़ ए प्रॉमिज। नहीं तो हमारे यहाँ स्त्रियाँ श्मशान नहीं जातीं।''
''ओ माई स्वीट,'' पॉल ने सूली पर टंकइ ईसू की-सी ही निर्दोष मुद्रा से रूठी कली को मनाने की चेष्टा की।
''तुमसे कहा है ना मैंने, हमारे दल में सेक्स इज नो बार। न हममें कोई सी है, न पुरुष। थोड़ा बैठो ना!''
''नहीं पॉल, मुझे कुछ शापिंग करना है।''
होटल से निकलकर बसने महातृप्ति की साँस लेकर ललाट का पसीना पोंछा।

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