नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
''पौने चार सौ को आप सस्ती कहती हैं,'' नवीन की
आँखें फटने लगी थीं, ''इतने में तो हम साल-भर के
कपड़े बनवा लेते। हमें तो आज ही पता लगा कि साड़ियाँ
भी ससुरी इतनी महँगी होती है।''
''वाह,'' कली हँसकर कहने लगी, ''पिछली वार कनाडा
में ढाई हजार की एक साड़ी में तो मैं ही मॉडल बनी
थी। कहिए तो अम्मा, आपकी बहू के लिए वही साड़ी ला
दूँ,'' उसने मज़ाक़ किया।
''नहीं जी, माफ़ कीजिए,'' दामोदर बीच में ही बोल
पड़ा, ''हमारी अम्मा ऐसी फ़िजूलखर्ची में विश्वास
नहीं करतीं। उनका बस चले, तो ढाई हजार में साड़ी
सहित मॉडल ही खरीद लायेगी।''
एक क्षण को कली का चेहरा लाल पड़ गया। इस व्यक्ति
को देखते ही उसके शरीर में अजीब सुरसुरी होने लगती
थी।
''अब मैं चलूँ,'' वह उठ गयी, ''यह लीजिए कैशमेमो
और रुपये,'' उसने बटुआ खोलकर कुछ नोट अम्मा को थमा
दिये।
वहाँ से उठकर जाने की उसकी जरा भी इच्छा नहीं थी,
जी कर रहा था, देर तक यहीं बैठी-बैठी गप्पें मारती
रहे। पर वह चलने लगी, तो किसी ने भी उससे एक बार
बैठने को नहीं कहा। लग रहा था, उसके सहसा आ जाने
से उस पारिवारिक गोष्ठी में तनाव-सा आ गया है।
हँसनेवाले ने हँसना बन्द कर दिया है और उसके आने
से पहले बकर-बकर करनेवाली जया मुँह लटकाकर कोने
में बैठ गयी है। अम्मा ने भी तो एक बार भी बैठने
का आग्रह नहीं किया। वह चुपचाप उठकर अपने कमरे में
चली आयी।
बड़ी देर तक वह खिड़की की ठण्डी सलाखें पकड़कर सूनी
सड़क को देखती रही। पहले एक छोटी-सी दुर्घटना
हुई-किसी स्कूटर की एक टैक्सी से टक्कर, फिर
गाली-गलौज, पुलिस की भीड़भाड़ और फिर सब शान्त। थोड़ी
देर में 'बोलो हरि, हरि बोल' के आह्वान से दिशाएँ
गुजाती एक अर्थी गयी, दोत्तीन शराबी गाते
खिलखिलाते निकले, फिर सड़क कुछ क्षणों के लिए जनहीन
बन गयी।
दिन-भर की थकान से कली का अंग-अंग दुख रहा था, पर
आँखों में नींद नहीं थी। आज इतने वर्षों में उसे
अपनी अम्मा की याद क्यों आ रही थी? गुलाबी साड़ी,
गौरवर्ण, उदास आँखों और उन आँखों में कली के प्रति
कैसा विचित्र भाव! क्या वह सच्चा वात्सल्य था या
करुणा थी? कभी-कभी कितनी ही अस्पष्ट आकृतियाँ,
प्रेत छायाओं-सी उसे अनिद्रावस्था में भी घेरकर
नाचने लगती थीं। लम्बी, नाटी, गोरी, साँवली असंख्य
लाड़-दुलार-भरी देशी-विदेशी मौसियाँ, रेशमी कपड़ों
में झलमलाती दासियाँ, एक-दूसरे से टकराते
झाड़-फानूस, दूध-सी धुली चाँदनी उस पर गावतकिया
लगाये, कितने सारे सजे-सँवरे पुरुष, और गहनों से
झलमलाती बीच में कान पर हाथ धरकर गाती अम्मा-
जोबनवा के सब रस
ले गइलै भँवरा
गूँजी रे गूँजी
चौंककर कली उठ बैठती।
क्या वह प्रेत दरबार था! यदि कभी उसने देखा नहीं
तो वह गाना भला उसे कैसे याद रह गया? एक बार
हँसी-हँसी में उसने अम्मा से पूछ भी लिया था,
'क्यों अम्मा, तुम कभी यह गाना गाती थीं ना?''
अम्मा का चेहरा सफ़ेद फक पड़ गया था। 'नहीं, पता
नहीं कहीं से सुन आयी है,' उसने कहा था।
पर एक दिन स्कूल से अचानक ही होम लीव मिल गयी और
वह माँ को छकाने, दबे पैरों खिड़की से उचककर देखने
लगी। पलँग पर बैठी माँ आँखें मूँद कान पर हाथ धरे
वैसे ही मीठी आवाज़ में गा रही थी, वही गाना-
जोबनवा के सब रस
ले गइलै भँवरा
गूँजी रे गूँजी
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