नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
कमरा खुला ही छोड़कर वह अम्मा से मिलने चली गयी।
भारी परदे के व्यवधान से तीर की गति से आ रहे जिस
व्यक्ति से वह पूरे वेग से टकरयिा, उसने 'अरे-अरे,
सँभल के' कह, उसे बड़े यत्न से बांहों में ऐसे भर
लिया, जैसे मसलकर कीमा बना देगा। तीव्र टक्कर से मेज
पर धरा एक फूलदान झनझनाता दूर तक लुढ़कता चला गया और
शायद उसी आकस्मिक टुर्घटना का सशब्द आह्वान जया को
वहाँ खींच लाया। सुन्दरी कली का सद्य-खाता सौन्दर्य
पति के बाहुपाश में बन्दी देख वह उलटे पैरों लौट
गयी। कली ने एक झटके से दामोदर के बाहुपाश से अपने
को छुड़ा लिया तो वह बेहया बड़ी निर्लज्जता से
मुसकराने लगा,''वाह-वाह, क्या सुगन्ध लगतिा हैं आप!
पल-भर को ऐसा लगा जैसे कोई इम्पोर्टेड सेण्ट की शीशी
ही साली हाथ में फूट गयी हो।'' फिर वह दोनों रिक्त
हथेलियों की मुट्ठी बाँधकर सूँघने लगा।
तड़पकर कली भीतर चली गयी। क्या सोचती होगी जया! कोई
अनदेखी टक्कर उसे किसी की बाँहों में डाल दे, तो दोष
क्या उसका था? पर इस दामोदर के बच्चे को कड़ा सबक
सिखाना ही होगा।
माया के कमरे में ही चटाई डाले अम्मा उससे कोई
पोस्टकार्ड लिखवा रही थीं। उसे देखते ही अम्माँ ने
बारचार नाक पर फिसलता चश्मा उतारकर धर दिया।
''ला तो री माया, पहले इसका मुँह मीठा करा,''
उन्होंने हँसकर उसे हाथ से खींच अपने पास बिठा लिया।
''क्या बात है अम्मा, कैसा मुँह मीठा करवा रही हो?''
कली अभी भी जंगली दामोदर के काँटे चुभोते स्पर्श से
सिहरी जा रही थी।
''ले पहले पेड़ा खा,'' अम्माँ ने अपने हाथों से पेड़े
का आधा टुकड़ा कली के मुख में ठूँस दिया।
''अब सुन, हमारे लल्ला ने शादी के लिए ही कर दी
है।''
कण्ठ का पेड़ा कण्ठ ही में अटक गया। नादान शून्य में
फैली बाँहें एक बार फिर किसी अनाड़ी तैराक की भाँति
अगम जलराशि में किसी तिनके का अदृश्य सहारा टटोलने
लगीं।
''अब पूछ लड़की कौन है?''
एक डुबकी के साथ ही जैसे बहुत-सा पानी अनाड़ी तैराक
की आँख, नाक, कान में घुसकर उसे मृतप्राय बना गया।
कली को लगा वह गिर पड़ेगी। ऐसी पहेली क्या अम्मा कभी
बुझाती थीं।
''अरी, बावली, अब भी ना समझी? अपने पाण्डेजी की
कुन्नी। जबरदस्ती ले गये थे ना उस दिन? फिर ऐसी
सोहिनी सूरत भला किसे पसन्द नहीं आती। अरी छोटी-सी
थी यही कुन्ती तो एकदम मरियल, लिवर का इलाज कराने
पाण्डेजी मद्रास ले गये थे। अब तो उसका नक्शा ही बदल
गया है। क्यों, है ना री माया?''
समग्र ब्रह्माण्ड कली को लिये गोल-गोल घूम रहा था।
''इसी इतवार को हमें समधियाने की दावत में जाना है।
तू भी चलेगी बिट्टो? तू क्या मेरी जया, माया से
परायी है?''
''और क्या, आपको तो चलना ही होगा, साथ ही एक काम भी
आप ही को करना होगा,'' माया उसके कन्धे पर झुक आयी।
''उसी दिन पाण्डेजी टीका भी चढ़ा रहे हैं। हमारी
अम्मा को भी दुहराना होगा। पहाड़ का यही क़ायदा है। एक
बढ़िया-सी साड़ी आप ही को खरीदकर ला देनी होगी।''
''मुझे?'' कली के सूखे होंठों से प्रश्न स्वयं ही
फिसल गया।
''क्यों? दिन-रात आप मॉडल बनती रहती हैं। आपकी-सी
बढ़िया च्वाइस भला और किसकी होगी? उस दिन कुन्नी भी
शायद आपकी कोई फ़ैशन परेड देख आयी थी। कह रही थी,
'तुम्हारी मिस मजूमदार तो डी. सी. एम. की सस्ती छींट
का थान भी कन्धे पर डालकर निकल जायें, तो किमख्वाब
लगने लगता है। बस, इतना ध्यान रखिएगा कि साड़ी का रंग
नीला या काला न हो। क्यों है ना अम्मा?''
''अरी चटक लाल लइयो, बस। बहू तो उजली चिट्टी आ रही
है।'' अपनी गर्वोक्ति के मुँह से निकलते ही अम्मा
खिसिया गयीं। साँवली कली के सम्मुख बारम्बार
गौरवर्णभावी पुत्रवधू के उजले रंग का बखान ही शायद
कली को अनमनी कर गया था।
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