लोगों की राय

नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

16660 पाठक हैं

हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


पन्द्रह दिनों के बीच जिस घर को एक अटपटी उदासी में उलझा वह छोड़ गयी थी उसका नक्शा ही बदल गया है, यह वह गृहप्रवेश के साथ ही समझ गयी। उसे देखते ही माया मुसकराती उसके कमरे में चली आयी।
''अरे वाह, आपने तो पूरे कमरे की मनहूसी ही दूर कर दी। हम लोगों ने तो इस कमरे में आना ही छोड़ दिया था।''
बहुत दिनों से सफ़ाईहीन कमरा भी स्वच्छ-सुघड़ लग रहा था।
''लगता है, खूब थक गयी हैं आप। बहुत लम्बा दौरा था क्या?''
कली ने पहली बार माया का आकर्षक चेहरा निकट से देखा।
लड़की अपने बड़े भाई का ही छोटा संस्करण थी एकदम। वहा नाक, रसीली आँखें और चमकीले दाँत। गलग्रह से विकृत बन गयी अपनी बड़ी बहन से स्वभाव और रूप दोनों में माया निश्चय ही भिन्न थी। दिन-भर गुमसुम रहनेवाली जया रात को प्रगल्भा बनी सुदर्शन पति के मधुर प्रस्तावों पर कैसी ठण्डी छुरी फेरती थी, वह सब बिस्तर पर पड़े-पड़े कली सुनती रहती थी। बेचारा दामोदार...पत्नी के उस हिम-शीतल व्यवहार के कारण ही क्या वह सुधातुर व्यक्ति कँगले भिखारी की भाँति सुस्वादु व्यंजनें की सुगन्ध पाते ही लार टपकाने लगता था? किसी भी पुरुष की

उपस्थिति कली को कभी भयावह नहीं लगी। किन्तु गृह के उस व्यक्ति के सम्मुख एकान्त में उसका दुस्साहसी कलेजा भी थरथरा उठता था।
''दौरे तो और भी लम्बे थे, पर लौटना पड़ा। जिन्हें साथ लेकर गयी थी, उनमें से एक की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गयी थी। अम्मा ठीक हैं ना? नहा-धोकर तब उनसे जाऊँगी,'' कली हँसकर माया के पास ही कुरसी खींचकर बैठ गयी।
वह जैसे जान-बूझकर क्षण-भर की उस अतिथि को देर तक बैठाना चाह रही थी। सचमुच ही दोनों भाई-बहनों की सूरत में अद्भुत साम्य था।
''आपको देखकर तो हमेशा यही लगता है कि नहा-धोकर ही चली आ रही हैं,'' माया ने प्रशंसापूर्ण दृष्टि से उसे सिर से पैर तक देखकर कहा।
''ओह, धन्यवाद, पर देखिए,'' उसने घने केशगुच्छ के एक कुण्डल को उठाकर अपना हीरे के कर्णफूल से जगमगाता छोटाका कान दिखा दिया,''देख रही हैं ना? लगता है, इंजन ने अपने सारे कोयले के धुएँ का टार्जेट मेरे कान को ही बना दिया है?
''आप नहा-धोकर जल्दी आइएगा, अच्छा? एक जबरदस्त सरप्राइज है आपके लिए,'' एकदम बच्ची की-सी दूधिया हँसी से कली को सराबोर करती वह चली गयी। क्या सरप्राइज हो सकता था भला! क्या पता कुछ अनहोनी घटना ही इस बीच घट गयी हो।
अपने रहस्यमय बचपन के अंधकारपूर्ण कक्ष में अन्धी बनी वह घण्टों तक अपने लेहालु अदर्शी अनजान पिता की ममतामयी आकृति को टटोलती रहती थी। सुदर्शन पिता, जो स्कूल की नीरस स्टडी में डेस्क पर झुकी, दिवास्वप्नों में डूबी विद्रोहिणी नन्हीं पुत्री को अचानक आकर उसके कल्पनालोक में छाती से लगा लेते थे, अब कहीं खो गये थे।

आज उसी कल्पनालोक का वर्षों से बन्द जंग-लगा ताला जैसे स्वयं ही खटाक् से खुल गया था। अस्पष्ट अन्धकार में भटकती वह शून्य में बाँहें फैलाती फिर किसे खोजने लगी थी? क्या पता उसकी अनुपस्थिति में उस दम्भी व्यक्ति ने उसके सौन्दर्य का लोहा मान लिया हो। उसे पाने के लिए शायद वैसे ही व्याकुल हो उठा हो, जैसे आज तक असंख्य पुरुष नतजानु होकर उसके सम्मुख व्याकुल हो लड़खड़ाकर बैठ गये थे! क्या पता चुलबुली माया उसे यही सरप्राइज देने बुला गयी हो। दूसरे ही क्षण उसके पैरों के तले से ठोस धरातल को उसकी कुशाग्र विवेक चेतना ने स्वयं ही खींच लिया। कैसा बचपना था उसका! जिस माया से वह पहली बार ऐसी घनिष्ठता से बोल पायी थी, वह क्या उसे ऐसा सरप्राइज़ देने बुला सकती थी? और फिर जिस व्यक्ति को लेकर वह निरर्थक रसीला तानाचाना बुन रही थी, वह उसकी जीवन-पुस्तिका का एक-एक वर्जित परिच्छेद पढ़ उसे दूर नहीं पटक चुका है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book