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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


सरला अम्मा ने चट से उसे रूठी बच्ची की भाँति फुसलाने के लिए बात पलट दी, ''अरी अब गोरे रंग से थोड़े ही ना सबकुछ होता है। हमारी इस कली को ही देखो, लाल, नीला, पीला जो पहन ले वही खिल उठता है। पर हमारे पहाड़ी व्याह-बरातों में राती-पीली चुनरी ही चढ़ती है बेटी।''
''ठीक है अम्मा, मैं लेती आऊँगी।'' कली उठ गयी।
''अरे रुपये तो लेती जा,'' अम्मा ने पास ही धरा कलमदान खोलकर सौ-सौ के चार नोट निकाल लिये।
''इत्ते सारे नोट लेकर क्या करूँगी अम्मा?'' कली साड़ी के मोल-तोल के मूड में थी भी नहीं।
''अरी, सौ में तो आजकल लट्ठे का एक थान भी नहीं आता। बढ़िया-सी ला देना बेटी। बड़े घर की लड़की आ रही है। हमेशा अच्छा खाया-पहना, ओढ़ा होगा।''
चारों नोट हाथ में दबाये कली लौटी, तो माया भी साथ-साथ चलने लगी। खिड़की के पास ही सिर झुकाये खड़ी जया की लाल सूजी आँखों को दोनों ने एक साथ देखकर दृष्टि फेर ली।
माया अपदस्थ-सी हो गयी। क्षण-भर पूर्व का समग्र उल्लास न जाने कहीं उड़ गया। धीमें स्वर में वह स्वयं ही कहने लगी, ''पता नहीं क्या हो गया है दीदी को,
दिन-रात खुद ही नहीं रोती, घर-भर को रुलाती हैं। इतनी मनहूसी के बाद ऐसा शुभ दिन आया और इनका मुँह लटका ही रहता है।''
बड़ी बहन के प्रति उसके आक्रोश को सुनते ही कली ने उसे अपने कमरे में खींच लिया, ''माया, तुमसे कुछ कहना है,'' और उसे अपने पलँग पर बिठाकर वह एक ही साँस में अपनी आकस्मिक मुठभेड़ का विवरण उगल गयी।
''पता नहीं तुम्हारी दीदी क्या सोचती होंगी। इससे पहले कि मैं तुम्हारे जीजा के बाहुबन्धन से अपने को छुड़ाती, दीदी पलटकर चली गयी। तुम उन्हें सब समझाकर अभी कह दो माया, प्लीज़!''
कली की बहुत बड़ी आँखों को गीली देखकर माया मुग्ध हो गयी। ठीक जैसे किसी चलचित्र के चतुर कैमरामैन ने सुन्दर नायिका की जलभीनी बड़ी आँखों पर फोकस का घेरा डाल उन्हें और भी सुन्दर बना दिया था।
''तुम क्या सोचती हो, दीदी जीजा को नहीं जानती?'' एक लम्बी साँस खींचकर माया पल-भर को चुप हो गयी। फिर उठकर उसने द्वार बन्द कर दिया। क्या पता दीवार का कान बना कुटिल दामोदर यहीं कहीं छिपा दोनों की बातें सुन रहा हो। ''तुम तो परायी हो। मैं तो दीदी की सगी बहन हूँ। मुझे ही उसने एक दिन ऐसे जकड़ लिया। मैंने तो कसकर एक तमाचा भी धर दिया। अब तुम्हीं सोचो, क्या ऐसी बात मैं अम्मा, दीदी या अपने पति से कह सकती थी? मैं तो स्वयं ही सोच रही थी कली, तुम्हें आगाह कर दूँ। शायद इसी आशंका से बड़े दा भी विचलित हो गये थे। तुम्हें हटाने के लिए अम्मा से दो-तीन बार कह चुके हैं।''
"अच्छा?'' कली का कलेजा डूब गया। तो वह उसे यहाँ से खदेड़ना चाहता है। किन्तु चित्त का क्षोम उसने चेहरे पर नहीं उभरने दिया।
''तुम्हारे बड़े दा को मेरी चिन्ता नहीं करनी होगी माया,'' वह हँसकर कहने लगी, ''मैं खुद ही कलकत्ता से बाहर चली जा रही हूँ।''
''वाह, यह कैसे हो सकता है, बड़े दा की शादी के पहले आपको जाने ही कौन देगा?''
कुछ ही घण्टों की परिचिता माया उससे किसी वर्षों की पूर्व परिचिता सखी की अन्तरंगता से लिपट गयी।
''कहीं जा रही हैं, आखिर सुनूँ भी।''
''पिछले महीने ऐसे ही खेल-खेल में एक बड़ी अच्छी नौकरी की अर्जी डाल दी थी। उसमें सुना बड़ी सिफारिश चलती है। सीलोन टी बोर्ड के सेक्रेटरी का पद केवल यं ज़ेयता की ही कैफियत नहीं माँगता। यू मस्ट हैव लुक्स, बर्थ ऐण्ड ब्रेन। फिर इण्टरव्यू देकर लौटी तो आशा ही छोड़ दी थी।''
''क्यों?''
''एक से एक सुन्दरी अप्सराओं का मेला जुटा था।''

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