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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


पन्द्रह


दिन-भर की भाग-दौड़ और आकस्मिक उत्तेजना ने अम्मा को हँफा दिया था। उस पर माया चुपचाप आकर बड़े भाई की अनोखी शर्त के विषय में भी बता गयी थी। तब से बेचारी मन-ही-मन घुली जा रही थीं। पता नहीं कौन-सी अलबेली शर्त खड़ी करके रख दे, लड़का! कहीं अब यह न कह दे कि शादी दो साल बाद करेगा। इसी फागुन में कर लेता, तो शायद पाण्डेजी दामोदर का भी ठीक-ठिकाना लगा देते।
''अब तुम कुछ मत पूछना अम्मा,'' चतुर माया उसे बार-बार समझा गयी थी, ''कुन्ती को एक-दो बार देख लेंगे तो सब शर्ते भूल जाएँगे।''
बड़ी-बड़ी आँखोंवाली बंगकन्या-सी सलोनी कुन्ती को वह फिर बड़े लुभावने अधिकार से इसी रविवार को देख सकेगा, यह कल्पना प्रवीर को सचमुच ही ऐसे गुदगुदा रही थी कि उसे कभी-कभी स्वयं ही खीझ उठने लगी थी। वह उस सुन्दरी आकर्षक लड़की को और भी निकट से एकान्त में देखना चाहता था। कहीं ऐसा न हो कि उस आकर्षण में प्रकृति का हाथ कम हो, स्वयं स्वामिनी का ही अधिक। क्या आकर्षक क़द की ऊँचाई के ही अनुपात में उसके दिमाग ने भी वैसी ही ऊँचाई पायी होगी या ऊँची दुकान का वह फ़ीका पकवान बिना सोचे-समझे, परखे-बूझे जल्दबाजी में खरीद कर गप्प से मुख में धर लेने पर उसे जीवन-भर पछताना पड़ेगा? वह अपनी परिमार्जित रुचि के सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता था और कहीं गेहूं-बिनौले के भाव रटनेवाली पली उसके पल्ले पड़ गयी तब? यह ठीक था कि लड़की के कण्ठ के माधुर्य को उसने निकट से ठोक-बजाकर परख लिया था, पर दिमागी कोठा भी ठँसा है या एकदम ही खोखला? दिन-रात रवीन्द्र-संगीत सुनकर ही तो वह इतन-पिपासु अपनी तृषा नहीं छुझा पायेगा। पर अब तो नाक में नकेल डालने के लिए छेद बन गये थे। वह आतुरता से रविवार की प्रतीक्षा करने लगा।

महीना-भर अपने शिव को बारात के गणों के साथ इधर-उधर घूमने का प्रोग्राम कली को पन्द्रहवें ही दिन स्थगित कर कलकत्ता लौटना पड़ा। पार्टी के सबसे छोटे सदस्य डिकी वैलहैम को वाराणसी के ढाबे में किये गये समय-असमय के कुपाव्य भोजन ने प्राणान्तक खूनी पेचिश से रक्तहीन बना दिया था। कितनी ही बार कली ने अपने हठीले, बिगड़े राजकुमारों को समझाने की व्यर्थ चेष्टा की थी-'भारतीय खाना ही खाना है, तो वह उन्हें किसी साफ़-सुथरे होटल में ले चलेगी।' पर नहीं, उन्हें तो
काशी की विचित्र वस्तुएँ ही सम्मोहन के जाल में कँधे जा रही थीं। कन्धे तक फैले पीले वालों की अयाल झटकाते उसके विदेशी अबधूत जिद चढ़ने पर अड़ियल टट्टू-से दोनों पैर अड़ाकर खड़े हो जाते। बड़े-बड़े अल्यूमिनियम के पतीलों में घोटे जा रहे सुस्वादु भोजन की सुगन्ध की लपटों ने दिन-भर इधर-उधर भटके भूखे दल को रोक लिया।
''ओह, डिलीशस,'' दल की विदेशी छोकरी ने नटिनी की-सी फुर्ती से झुककर सुगन्धित वाष्प से कम्पित ढकने को सूँघकर ढाबे के स्वामी ठिगने सरदार को अपने एक ही नीले कटाक्ष से चित कर दिया।
''सब कुछ एकदम ताजा है, मेमसाहब, नान करी, तन्दूरी मुर्ग,'' सरदार को शायद इसके पूर्व भी काशी में दिन-रात आते-रहते हिप्पियों की जजमानी निभाने का खासा अभ्यास था।
''टिपिकल इण्डियन करी एण्ड टिपिकल इण्डियन चेफ़,'' कहकर मुसकराती मण्डली जम गयी।
कली कटकर रह गयी थी। जैसा घिनौना बदबूदार सरदार था, वैसी ही रिकेटी हिलती टीन की कुरसियाँ। गन्दी मोटे गैंडे के खालवाली क्रॉकरी और जाँघ खुजाते घिनौनी अनहेल्दी सूरत के छोकरे नौकर! पर दल के नक्कारखाने में पिछले पन्द्रह दिनों से उसकी तूती का स्वर क्रमशः अस्पष्ट होता एकदम ही विलीन हो गया था। हारकर वह भी एक कोने की कुरसी पर बैठ गयी थी। सरदार के बारम्बार आग्रह करने पर भी वह एक प्याला चाय तक नहीं पी पायी थी, और छिः-छिः, उसके साथ ये विदेशी एक-से-एक लक्षाधिपतियों के सभ्य पुत्र, मानवीय सभ्यता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर फिर किस वहशी सभ्यता के आदिम स्रोत को छूने स्वेच्छा से अनजान घाटियों की ओर लुढ़कते जा रहे थे।

चाहने पर वे काशी के दामी ब्रोकेड लेकर अपनी श्वेत काया को सजा सकते थे। उनके बटुओं की गरिमा को कली बहुत निकट से देख चुकी थी, पर उनके सिर पर बँधा था सवा रुपये का बनारसी गमछा, धोती-कुरता, और गौर ललाट पर वैष्णवी त्रिपुण्ड। चाहने पर शैम्पेन या वैट सिक्सटी नाइन की बोतलें सोडावाटर की बोतलों की भाँति ही वे सुगमता से जुटा सकते थे, पर घाट पर अवधूतों के अड्डे पर जमे, गाँजे-चरस की दम खींचकर करेंगे त्रैलोक्य दर्शन और बेचारी कली रेत पर दूर खड़ी-खड़ी घण्टों तमाशा देखती रहेगी!
होटल के एक ही कमरे में पाँचों पाण्डव और उनकी द्रौपदी! पहले दिन कली को भी अपने कमरे में सुलाने का दुराग्रह हुआ था पर 'डोण्ट-बी चाइल्डिश' कहने पर शायद कली के ताम्रतेज ने उन्हें सहमा दिया था। किन्तु ढाबे में खाने के प्रस्ताव का अनुमोदन न करने पर भी कली उन्हें नहीं रोक पायी, उन्हें हाथ ही से चिंचोड़-चिचोड़कर मुर्ग खाते और नान के बड़े-बड़े गस्से जंगली भिखारियों की भाँति
निगलते देख कली दंग रह गयी थी।
फिर वह क्या एक ही दिन की वात थी! धारीदार कच्छाधारी, धुएँ से पाण्डुजीर्ण बनियान और बिना साफे के कसकर बाँधी गयी सरदारजी की जटा पर ही कली के अतिथिदल की भागीरथी झरझराकर निरन्तर कई दिनों तक बहती रही थी। तन्दूरी मुर्ग, नान और कश्मीरी मिर्च से सँवरे लाल छोलों ने, समय से कुछ पहले अपना प्रतिशोध ले लिया। काठमाण्डू का प्रोग्राम कैन्सिल कर, मृतप्राय येलहेम को एक प्रकार से गोदी में उठाकर ही कली मि. शेखरन कौ सौंप आयी थी।
''ऐसे विचित्र दल का संचालन मुझसे नहीं होगा सर, आप दफ्तर के किसी पुरुष कर्मचारी को ही इनका आतिथ्य सौंप दें।''
पर वे छोकरे क्या उसे इतनी आसानी से छोड़ देते?
''अपना प्रॉमिज़ भूल गयी क्या केली!'' दल के छह फुटी पॉल ने उसकी सुघड़ कलाई थाम ली। ''कलकत्ता के श्मशान हमें केली ही दिखाएगी। इसने प्रॉमिज़ किया था मि. शेखरन!''
उसकी आकर्षक मुसकान कली को किसका स्मरण दिलाती थी? अचानक कली के दोनों कान गरम हो उठे।
''ठीक है, मि. शेखरन, वैलहैम के ठीक होने पर मैं इन्हें वहाँ पहुँचा दूंगी।'' फिर अपनी बड़ी ही नटखट हँसी से वह शेखरन की ओर देखकर चली गयी।

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