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मैं हार गई

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3785
आईएसबीएन :9788183612500

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मानवीय अनुभूति के धरातल पर आधारित कहानियां.....

एक बार फिर मैंने कलम पकड़ी और नेता बदले हुए रूप और बदली हई परिस्थितियों में फिर एक बार इस संसार में आ गया। इस बार उसने शहर के करोड़पति सेठ के यहाँ जन्म लिया, जहाँ न उसके सामने पेट भरने का सवाल था, न बीमार बहन के इलाज की समस्या। असीम लाड़-प्यार और धन-वैभव के बीच वह पलने लगा। बढ़िया-से-बढ़िया स्कूल में उसे शिक्षा दी गई। उसकी अलौकिक प्रतिभा देखकर सब चकित रह जाते। वह अत्याचार होते देखकर तिलमिला जाता, जोशीले भाषण देता, गाँवों में जाकर वह बच्चों को पढ़ाता। गरीबों के प्रति उसका दिल दया से लबालब-भरा रहता। अमीर होकर भी वह सादगी से जीवन बिताता,सारांश यह कि महान नेता बनने के सभी शुभ लक्षण उसमें नज़र आए।
क़दम-क़दम पर वह मेरी सलाह लेता,और मैंने भी उसके भावी जीवन का नक्शा उसके दिमाग में पूरी तरह उतार दिया था, जिससे वह कभी भी पथ-भ्रष्ट न होने पाए।

मैट्रिक पास करके वह कॉलेज गया। जिस कॉलेज में एक समय में केवल राजाओं के पुत्र ही पढ़ा करते थे और आज भी जहाँ रईसी का वातावरण था, उसी कॉलेज में उसके पिता ने उसे भर्ती कराया। लेकिन मेरी सारी सावधानी के बावजूद उन रईसज़ादों की सोहबत अपना रंग दिखाए बिना न रही। वह अब ज़रा आरामतलब हो गया। मेरे सलाह-मशविरों की अब उसे उतनी चिन्ता न रही। घंटों अब वह कॉफी-हाउस में रहने लगा। और एक दिन तो मैंने उसे हाउजी खेलते देखा। मेरा दिल धक से कर गया। जुआ ! हाय राम ! यह क्या हो गया ? मैं सँभलकर कुर्सी पर बैठ गई और कलम को कसकर पकड़ लिया। क़लम को ज़ोर से पकड़कर ही मुझे लगा, मानो मैंने उसकी नकेल को कसकर पकड़ लिया हो। पर उसके तो जैसे अब पर निकल आए थे। जुआ ही उसके नैतिक पतन की अन्तिम सीमा न रही। कुछ दिनों बाद ही मैंने उसे शराब पीते भी देखा। मेरा क्रोध सीमा से बाहर जा चुका था। मैंने उसे अपने पास बुलाया। अपने क्रोध पर जैसे-तैसे काबू रखते हुए मैंने उससे पूछा, “जानते हो, मैंने तुम्हें किसलिए बनाया है ?"

वह भी मानो मेरा सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार होकर आया था। बोला,“अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए,अपनी इच्छा पूरी करने के लिए तुमने मुझे बनाया है। पर यह ज़रूरी नहीं कि मैं तुम्हारी इच्छानुसार ही चलूँ, मेरा अपना अस्तित्व भी है, मेरे अपने विचार भी हैं।"

 मैं चिल्ला उठी, “जानते हो, तुम किससे बातें कर रहे हो ? मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी निर्माता ! मेरी इच्छा से बाहर तुम्हारा कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं !"

वह हँस पड़ा, “अरे ! तुमने तो मुझे अपनी क़लम से पैदा किया है, मेरे इन दोस्तों को देखो ! इनकी अम्माओं ने तो इन्हें अपने जिस्म से पैदा किया है। फिर भी वे इनके निजी जीवन में इतना हस्तक्षेप नहीं करतीं, जितना तुम करती हो। तुमने तो मेरी नाक में दम कर रखा है। ऐसा करो, वैसा मत करो। मानो मैं आदमी नहीं, काठ का उल्लू हूँ। सो बाबा ऐसी नेतागिरी मुझसे निभाए न निभेगी। यह उम्र, दुनिया की रंगीनी और घर की अमीरी ! बिना लुत्फ़ उठाए यों ही जवानी क्यों बर्बाद की जाए ? यह करके क्या नेता नहीं बना जा सकता ?" ..

और मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही वह सीटी बजाता हुआ चला गया।

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