कहानी संग्रह >> मैं हार गई मैं हार गईमन्नू भंडारी
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मानवीय अनुभूति के धरातल पर आधारित कहानियां.....
कल्पना तो कीजिए उस जलालत की, जो मुझे सहनी पड़ी ! इच्छा तो यह हुई कि अपने
पहलेवाले नेता की तरह इसका भी सफ़ाया कर दूँ। पर सदमा इतना गहरा था कि जोश भी
न रहा। इतना सब हो जाने पर भी जाने क्यों, मन में एक क्षीण-सी आशा बनी हुई थी
कि शायद वह सीधे रास्ते पर आ जाए। गाँधीजी ने भी तो एक बार बचपन में चोरी की
थी, बुरे कर्म किए थे, फिर अपने-आप रास्ते पर आ गए। सम्भव है, इसके हृदय में
भी कभी पश्चात्ताप की आग जले और यह अपने-आप सुधर जाए पर अब मैंने उसे आदेश
देना बन्द कर दिया और धैर्य के साथ उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी, जब वह
पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसता हुआ मेरे चरणों में आ गिरेगा और अपने किए के
लिए क्षमा माँगेगा !
पर ऐसा शुभ दिन कभी नहीं आया। जो दिन आया, वह कल्पनातीत था। एक बहुत ही
सुहावनी साँझ को मैंने देखा कि वह खूब सज-धज रहा है। आज का लिबास कुछ अनोखा
ही था। शार्कस्किन के सूट की जगह सिल्क की शेरवानी थी। सिगरेट की जगह पान था।
सैंट महक रहा था। बाहर हॉर्न बजा और वह गुनगुनाकर अपने मित्र की गाड़ी में जा
बैठा। गाड़ी एक बार के सामने रुकी। और रात तक वे साहबज़ादे पेग-पर-पेग ढालते
रहे, भद्दे मज़ाक करते रहे और ठहाके लगाते रहे। रात को नौ बजे उठे, तो पैर
लड़खड़ा रहे थे। जैसे-तैसे गाड़ी में बैठे और ड्राइवर से जिस गन्दी जगह चलने
को कहा, उसका नाम लिखते भी मुझे लज्जा लगती है !
अपने को बहुत रोकना चाहती थी; फिर भी वह घोर पाप मैं सहन न कर सकी और तय कर
लिया कि आज जैसे भी होगा, मैं फ़ैसला कर ही डालूँगी। मैं गुस्से से काँपती
हुई उसके पास पहुंची। इस समय उससे बात करने में भी मुझे घृणा हो रही थी,
क्रोध से मेरा रोम-रोम जल रहा था ! फिर भी अपने को क़ाबू में रखकर और स्वर को
भरसक कोमल बनाकर मैंने उससे कहा, “एक बार अन्तिम चेतावनी देने के ख़याल से ही
मैं इस समय तुम्हारे पास आई हूँ। तुम्हारा यह सर्वनाश देखकर, जानते हो मुझे
कितना दुख होता है ? अब भी समय है, सँभल जाओ। सुबह का भूला यदि शाम को घर आ
जाए, तो भूला नहीं कहलाता !"
पर इस समय वह शायद मुझसे बात करने की मनःस्थिति में ही नहीं था। उसने पान
चबाते हुए कहा, "अरे जान ! यह क्या तुमने हर समय नेतागिरी का पचड़ा लगा रखा
है ? कहाँ तुम्हारी नेतागिरी और कहाँ छमिया का छमाका ! देख लो, तो बस सरूर आ
जाए।"
मैंने कान बन्द कर लिए। वह कुछ और भी बोला, पर मैंने सुना नहीं। पर उसने जो
आँख मारी, वह दिखाई दी और मुझे लगा, जैसे पृथ्वी घूम रही है। मैंने आँखें
बन्द कर ली और गुस्से से होंठ काट लिए। क्रोध के आवेग में कुछ भी कहते नहीं
बना, केवल मुँह से इतना ही निकला, "दुराचारी अशिष्ट ! नारकीय कीड़े !" ____
उसके मित्र ने जो कुछ कहा, उसकी हल्की-सी ध्वनि मेरे कान में पड़ी। वह
जाते-जाते कह रहा था, “अरे ! ऐसी घोर हिन्दी में फटकारोगी तो वह समझेगा भी
नहीं ! ज़रा सरल भाषा बोलो !"
और अधिक सहना मेरे बूते के बाहर की बात थी। मैंने जिस कलम से उसको उत्पन्न
किया था, उसी क़लम से उसका खात्मा भी कर दिया। वह छमिया के यहाँ जाकर
बैठनेवाला था कि मैंने उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। जैसा किया, वैसा
पाया ! ..
उसने तो अपने किए का फल पा लिया, पर मैं समस्या का समाधान नहीं पा सकी। इस
बार की असफलता ने तो बस मुझे रुला ही दिया। अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि
एक बार फिर मध्यम वर्ग में अपना नेता उत्पन्न करके फिर से प्रयास करती। इन दो
हत्याओं के भार से ही मेरी गर्दन टूटी जा रही थी, और हत्या का पाप ढोने की न
इच्छा थी न शक्ति ही।
और अपने सारे अहं को तिलांजलि देकर बहुत ही ईमानदारी से मैं कहती हूँ कि मेरा
रोम-रोम महसूस कर रहा था कि कवि भरी सभा में शान के साथ जो नहला फटकार गया
था, उस पर इक्का तो क्या, मैं दुग्गी भी न मार सकी। मैं हार गई, बुरी तरह हार
गई।
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