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मैं हार गई

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3785
आईएसबीएन :9788183612500

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मानवीय अनुभूति के धरातल पर आधारित कहानियां.....

तभी अचानक एक घटना घट गई। उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई। दवा-इलाज के लिए घर में पैसा नहीं था। सो उसके पिता ने तड़प-तड़पकर जान दे दी और वह बेचारा कुछ भी न कर सका। पिता की इस बेबसी की मृत्यु का भारी सदमा उसको लगा। उसकी बूढ़ी माँ ने रोते-रोते प्राण तो नहीं, पर आँखों की रोशनी गँवा दी। घर में उसकी एक विधवा बुआ और एक छोटी क्षयग्रस्त बहन और थी। सबके भरण-पोषण का भार उस पर आ पड़ा। आय का कोई साधन था नहीं। थोड़ी-बहुत ज़मीन जो थी, उसे जमींदार ने लगान बकाया निकालकर हथिया लिया। उसके पिता की विनम्रता का लिहाज़ करके अभी तक वह चुप बैठा था। अब क्यों मानता ? उसके क्रान्तिकारी बेटे से वह परिचित था। सो अवसर मिलते ही बदला ले लिया। अब मेरे भावी नेता के सामने भारी समस्या थी। वह सलाह लेने मेरे पास आया। मैंने कहा, “अब समय आ गया है। तुम घर-बार और रोटी की चिन्ता छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग जाओ। तुम्हें देश का नव-निर्माण करना है। शोषितों की आवाज़ को बुलन्द करके देश में वर्गहीन समाज की स्थापना करनी है। तुम सब कुछ बड़ी सफलतापूर्वक कर सकोगे, क्योंकि मैंने तुममें सब आवश्यक गुण भर दिए हैं।"

उसने बहुत ही बुझे हुए स्वर में कहा, “यह तो सब ठीक है, पर मेरी अन्धी माँ और बीमार बहन का क्या होगा ? मुझे देश प्यारा है, पर ये लोग भी कम प्यारे नहीं।"

मैं झल्ला उठी, “तुम नेता होने जा रहे हो या कोई मज़ाक है ? जानते नहीं, नेता लोग कभी अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते, वे देश के, सम्पूर्ण राष्ट्र के बारे में सोचते हैं। तुम्हें मेरे आदेश के अनुसार चलना होगा। जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी विधाता !" ।

उसने सबकुछ अनसुना करके कहा, “यह सब तो ठीक है पर मैं अपनी अन्धी बूढ़ी माँ की दर्दभरी आहों की उपेक्षा, किसी भी मूल्य पर नहीं कर सकता। तुम मुझे कहीं नौकरी क्यों नहीं दिला देती ? गुज़ारे का साधन हो जाने से मैं बाकी सारा समय सहर्ष देश-सेवा में लगा दूँगा। तुम्हारे सपने सच्चे कर दूँगा। पर पहले मेरे पेट का कुछ प्रबन्ध कर दो।"

मैंने सोचा, क्यों न अपने पिताजी के विभाग में इसे कहीं कोई नौकरी दिलवा दूँ। पर पिताजी की उदार नीति के कारण कोई जगह खाली भी तो रहने पाए ! देखा तो सब जगह भरी हुई थीं। कहीं मेरे चचेरे भाई विराजमान थे, तो कहीं फुफेरे। मतलब यह है कि मैं उसके लिए कोई प्रबन्ध न कर सकी। उसका मुँह तो चीर दिया, पर उसे भरने का प्रबन्धन न कर सकी।
हारकर उसने मजदूरी करना शुरू कर दिया। ज़मींदार की नई हवेली का थी. वह उसी में ईंटें ढोने का काम करने लगा। जैसे-जैसे वह सिर पर ईंटे उठाता उसके अरमान नीचे को धसकते जाते। मैंने लाख उसे यह काम न करने के लिए कहा, पर वह अपनी माँ-बहन की आड़ लेकर मुझे निरुत्तर कर देता। मुझे उस पर कम क्रोध नहीं था। फिर भी मुझे भरोसा था, क्योंकि बडी-बडी प्रतिभाओं और गुणों को मैंने उसकी घुट्टी में पिला दिया था। हर परिस्थिति में वे अपना रंग दिखलाएँगे। यह सोचकर ही मैंने उसे उसके भाग्य पर छोड़ दिया और तटस्थ दर्शक की भाँति उसकी प्रत्येक गति-विधि का निरीक्षण करने लगी।

उसकी बीमार बहन की हालत बेहद खराब हो गई। वह उसे बहुत प्यार करता था। उसने एक दिन काम से छुट्टी ली और शहर गया, उसके इलाज के प्रबन्ध की तलाश में । घूम-फिरकर एक बात उसकी समझ में आई कि काफी रुपया हो तो उसकी बहन बच सकती है। रास्ते-भर उसकी रुग्ण बहन के करुण चीत्कार उसके हृदय को बेधते रहे। बार-बार जैसे उसकी बहन चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, "भैया, मुझे बचा लो। कहीं से भी रुपए का प्रबन्ध करके मुझे बचा लो। भैया, मैं मरना नहीं चाहती !"..और उसके सामने उसके बाप की मृत्यु का दृश्य घूम गया। गुस्से से उसकी नसें तन गईं। वह गाँव आया और वहाँ के जितने भी सम्पन्न लोग थे, सबसे क़र्ज़ माँगा, मिन्नतें कीं, हाथ जोड़े, पर निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला। इस नाकामयाबी पर उसका विद्रोही मन जैसे भड़क उठा। वह दिन-भर बिना बताए, जाने क्या-क्या संकल्प करता रहा। और आधी रात के करीब दिल में निहायत ही नापाक इरादा लेकर उठा।

मैं काँप गई। वह चोरी करने जा रहा था ! मेरे बनाए नेता का ऐसा पतन ! वह चोरी करे ! छीः-छीः ! और इसके पहले कि चोरी-जैसा जघन्य कार्य करके वह अपनी नैतिकता का हनन करता, मैंने उसका ही खात्मा कर दिया! अपनी लिखी हुई कहानी के पन्नों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उसकी तबाही के साथ एक महान नेता के निर्माण करने का मेरा हौसला भी मुझे तबाह होता नजर आया। लेकिन इतनी आसानी से मैं हिम्मत जानेवाली न थी। बड़े धैर्य के साथ मैं अपनी कहानी का विश्लेषण करने बैठी कि आखिर क्यों, सब गुणों से लैस होकर भी मेरा नेता, नेता न बनकर चोर बन गया ? और खोज-बीन करते-करते मैं अपनी असफलता की जड़ तक पहुँच ही गई। गरीबी ! गरीबी के कारण ही उसके सारे गुण, दुर्गुण बन गये और मेरी मनोकामना अधूरी ही रह गई । जब सही कारण सूझ गया तो उसका निराकरण क्या कठिन था।

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