नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
अलका होंठ काटकर सिर हिलाती है और उसके पास चली जाती है।
सुंदरी : (उसे सिर से पैर तक देखकर)
यह भरा-पूरा यौवन और हृदय में धूल-भरा आकाश !
इसका कुछ उपाय करना होगा।
अलका : प्रभात में नींद टूटने से पहले देखा था सपना । प्रभात के सपने
सच नहीं होते, देवि ?
सुंदरी : (परिहास के स्वर में)
सुना है सच होते हैं। इसीलिए तो उपाय करना होगा। कहीं यह न हो कि तू भी कल
भिक्षुणी का वेश धारण करने की सोचने लगे।
अलका : (कुछ अंतर्मुख) मैं और भिक्षुणी का वेश ! 'नहीं, मैं ऐसी बात नहीं सोच
सकती। अभी नहीं मैं तो यह सोचकर ही सिहर जाती हूँ कि कल सच, कल भिक्षुणी के
वेश में देवी यशोधरा कैसी लगेंगी, देवि ?
सुंदरी : (उठती हुई)
और सब भिक्षुणियाँ कैसी लगती हैं ?
मदिराकोष्ठ के पास चली जाती है।
सोचकर खेद होता है कि इतने वर्ष पीड़ा सहने के बाद भी देवी यशोधरा अपनी पीड़ा
का मान न रख सकीं।
पात्र से थोड़ी मदिरा चषक में डाल लेती है।
बहुत सहानुभूति भी होती है।
अलका : परंतु संभव है देवि !
सुंदरी : हाँ, कह, रुक क्यों गई ?
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