लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

96 पाठक हैं

सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


सिरा नहीं मिलता, तो झुंझलाकर जगह-जगह से डोरी तोड़ने लगता है। दाईं ओर के द्वार से सुंदरी अलका के साथ आती है।

सुंदरी : तू सपने भी देखती है, तो ऐसे-ऐसे ! सूखा सरोवर, पत्रहीन वृक्ष और धूल-भरा आकाश ! इसका अर्थ यह है कि ।

दृष्टि श्यामांग पर पड़ती है। वह उनके आने से फिर जड़वत् खड़ा हो गया है। अलका जैसे उससे कुछ कहने को होती है, पर चुप रह जाती है। काम इस तरह होता है, श्यामांग ? खड़े-खड़े सोच क्या रहे हो ? कि डोरियाँ पत्तियों में उलझी हैं या पत्तियाँ डोरियाँ में ?

श्यामांग : (जैसे आँखों के आगे आते अँधेरे से बचने की चेष्टा करता हुआ) नहीं - मैं सोच... सोच कुछ भी नहीं रहा। चेष्टा कर रहा हूँ कि किसी तरह किसी तरह ये सुलझ जाएँ और ।

अचानक भारी गुंझल हाथ में आ जाता है। वह हाथ पीछे करके उसे तोड़ता है।

सुंदरी : हाँ, इसी चेष्टा से तो ये सुलझेंगी ! जाओ, जाकर यह काम किसी और को सौंप दो और ।

श्यामांग जैसे बहुत प्रयत्न से आगे सुनने की प्रतीक्षा करता है। (कुछ शीघ्रता के साथ) और कहीं एकांत में बैठकर सोचो कि जब कोई काम हाथ में न रहे, तो हाथों को क्या करना चाहिए।
 
श्यामांग उलझी हुई पत्तियों को, फिर अपने हाथों को देखता है। फिर जैसे कुछ भी न सोच पाने से पत्तियों के ढेर में उलझा हुआ झुककर अभिवादन करता है। बाईं ओर के द्वार से जाते हुए वह एक बार अलका की ओर चुंधियाई-सी आँखों से देख लेता है। सुंदरी पल-भर श्रृंगारकोष्ठ के पास रुकती है, फिर मत्स्याकार आसन पर जा बैठती है।

तू अपने सपने की बात कह रही थी न अलका ? क्या कह रही थी क्या देखा था सूखा सरोवर, पत्रहीन वृक्ष
और धूल-भरा आकाश ?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book