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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


श्यामांग की ओर देखती है। श्यामांग हाथ रोके जड़-सा खड़ा है। तुम खड़े-खड़े सोच क्या रहे हो ? कि आग काठ के अंदर है या बाहर ? देखो, चिंतन बाद में करना, पहले जल्दी से दीपक जलाकर पत्तियाँ सजा दो । अतिथियों के आने में अधिक समय नहीं है। तुम आओ श्वेतांग !

बाई ओर के द्वार से चली जाती है। श्वेतांग जाते हुए एक बार तरस खाती आँखों से श्यामांग की ओर देख लेता है। उनके चले जाने पर श्यामांग कुछ क्षण ठगा-सा खड़ा रहता है। भाव ऐसा होने लगता है जैसे उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा रहा हो। वह अग्निकाष्ठ को अपने माथे के पास लाकर इस तरह हिलाता है जैसे उसके अंदर उजाला कर रहा हो। फिर घेष्टा से अपने को सँभालकर दीपक जलाने लगता है।

 श्यामांग : बस कह दिया, तो हो गया ! पत्तियाँ श्यामांग के लिए छोड़ दो ! श्यामांग से पत्तियाँ न सुलझीं, तो कामोत्सव नहीं होगा !
 
श्वेतांग कहता है कुछ सोचो नहीं। पर सोचना-न-सोचना अपने बस की बात है ? पिछले वसंत में आम कैसे बौराये थे! पेड़ों की डालियाँ अपने-आप हाथों पर झुक आती थीं।

परंतु तब यहाँ कामोत्सव का आयोजन नहीं किया गया। आयोजन किया गया है इस बार जब आम के वृक्षों ने भिक्षुओं का वेश धारण कर रखा है ! कल प्रातः देवी यशोधरा भिक्षुणी के रूप में दीक्षा ग्रहण करेंगी और यहाँ... यहाँ रात-भर, नृत्य होगा, आपानक चलेगा !

फिर कुछ क्षण ऐसे ही रहता है जैसे आँखों के आगे अँधेरा घिर आया हो। फिर प्रयत्न से अपने को सँभालता है और घूमकर देखता है कि सब दीपक जल गए हैं या नहीं। उसके बाद अग्निकाष्ट की ओर इस तरह देखता है जैसे उससे पूछ रहा हो कि अब और क्या करना है। तुम्हें बाहर छोड़ देना है और आकर पत्तियाँ सुलझानी हैं, यही न ?

अस्थिर भाव से सामने के द्वार से जाकर अग्निकाष्ठ बाहर रख आता है और आकर फिर से पत्तियों में उलझ जाता है।

(अपने से) लो, और सुलझाओ। जाने इनका सिरा कहाँ है ! एक बार हाथ से छूट जाता है, तो फिर पकड़ में ही नहीं आता।

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