नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
सुंदरी : रात बीतने दे, फिर अपने मन से पूछना। रात-भर नगरवधू चंद्रिका के
चरणों की गति से इस कक्ष की हवा काँपती रहेगी। हवा काँपती रहेगी, और दुलती
रहेगी मदिरा, उसकी आँखों से, उसके एक-एक अंग की गोराई से । कपिलवस्तु के
राजपुरुष रात-भर उस मदिरा में और अन्यान्य मणि-मदिराओं में डूबते-उतराते
रहेंगे। तू देखेगी और विश्वास नहीं कर सकेगी। जो नहीं देखेंगे, वे तो कल्पना
भी नहीं कर पाएँगे।
अलका पल-भर श्यामांग की ओर देखती रहती है।
अलका : (जैसे सहसा अपने को सहेजकर)
कल रात-भर मुझे नींद नहीं आई। जब नींद आई, तो ।
सुंदरी : ठहर, मैं क्या सोच रही थी ? हाँ, शशांक से कह दिया था न कि इस अवसर
के लिए उसे कुछ विशेष मदिराएँ प्रस्तुत करनी हैं ?
अलका : आपने अब तक आदेश नहीं दिया था । आदेश दें, तो मैं अभी
जाकर कह देती हूँ।
सुंदरी : मैंने अब तक आदेश नहीं दिया था ? इतनी बड़ी बात और इसी के संबंध में
आदेश नहीं दिया ? फिर मैंने सोच कैसे लिया कि ? शायद अपने पर बहुत निर्भर
करती हूँ | सोच लेती हूँ कि बात मन में आने से ही पूरी हो जाती है। अभी तक
सुगंधियों की भी तो व्यवस्था नहीं हो पाई। तू जा, पहले शशांक से कह दे । समय
बहुत थोड़ा है। पुराने रस और आसव मिलाकर भी वह कई-कई तरह के नए सम्मिश्रण
प्रस्तुत कर सकता है। और उससे कहना, भोज और पान की सारी सामग्री आज उद्यान
में सजानी है।
अलका : अभी जाकर कह देती हूँ|
दाईं ओर के द्वार से चली जाती है।
सुंदरी: तुम्हारा काम अभी पूरा नहीं हुआ श्वेतांग ?
श्वेतांग: अभी नहीं देवि ! तोरण सजाने के लिए ये पत्तियाँ ।
सुंदरी: पत्तियाँ श्यामांग के लिए छोड़ दो और तुम मेरे साथ आओ।
तोरणों पर गंधलेप से मुद्राएँ भी तो बनानी हैं। और तुम श्यामांग !
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