नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
अंक 1
दाईं ओर गोलाकार चबूतरा । सुंदर विछावन, तकिए। पीछे एक ऊँचा दीपाधार; शिखर पर
पुरुषमूर्ति-बाँहें फैली हुई तथा आँखें आकाश की ओर उठी हुईं। बाईं ओर एक झूला
और उससे थोड़ा हटकर एक मत्स्याकार आसन । आसन के पास ही मदिराकोष्ट । इसी ओर
मंच के आगे के भाग में एक छोटा दीपाधार; शिखर पर नारीमूर्ति-बाँहें संवलित
तथा आँखें धरती की ओर झुकी हुईं।
दाईं ओर आगे के कोने में श्रृंगारकोष्ठ । खुले भाग में डोरी से बँधी पत्तियों
का टेर।
एक द्वार सामने खुला होने पर पीछे के गवाक्ष दिखाई देते हैं। दूसरा द्वार
दाईं ओर; अंदर के कक्षों में जाने के लिए। तीसरा बाईं ओर; मत्स्याकार आसन और
दीपाधार के बीच, बाहर उद्यान में जाने के लिए।
पर्दा उठने पर मंच पर दो व्यक्ति हैं, श्वेतांग और श्यामांग। श्वेतांग
अग्निकाष्ठ से बड़े दीपाधार के दीपक जला रहा है। श्यामांग पत्तियों के ढेर
में उलझा हुआ उन्हें सुलझाने का प्रयत्न कर रहा है।
श्वेतांग : (कार्य में व्यस्त)
तुम्हारी उलझन अभी समाप्त नहीं हुई ?
श्यामांग : (पत्तियों को तोड़ने-सुलझाने में व्यस्त)
मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है।
श्वेतांग : मुझसे ईर्ष्या होती है ? क्यों ?
श्यामांग : देखो न एक के बाद एक दीपक जलता जाता है। न कुछ उलझता है, न कुछ
बिखरता है।
श्वेतांग : इसका कारण है।
श्यामांग : कारण है ? क्या कारण है ?
कुछ पत्तियों हाथों में लिए हुए श्वेतांग के पास चला जाता है।
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