लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द)

लहरों के राजहंस (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3763
आईएसबीएन :9788126708512

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

96 पाठक हैं

सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...


मेरे हाथों में काम उलझ क्यों जाता है ?

श्वेतांग : (उसी तरह व्यस्त)
इसलिए कि तुम सोचते बहुत हो।

श्यामांग : सोचता बहुत हूँ ? पर उससे क्या होता है ?

श्वेतांग : सब-कुछ उसी से होता है। हाथ काम नहीं करते, आँखें चुंधिया जाती हैं।
श्यामांग पल-भर आँखें झपकता रहता है।

श्यामांग : हाथ काम नहीं करते, आँखें चुंधिया जाती हैं । तो तुम तुम कभी कुछ नहीं सोचते ?
श्वेतांग पल-भर अग्निकाष्ट की ओर देखता रहता है, फिर जैसे अतीत से होकर लौटता है।

श्वेतांग : अब नहीं सोचता। पहले सोचा करता था।

श्यामांग : पहले सोचा करते थे ! और सोचने का परिणाम यह हुआ कि !

श्वेतांग : सोचना छोड़ दिया।
श्यामांग : (सोचता-सा) सोचना छोड़ दिया !

श्वेतांग : आदमी काम करना चाहे तो उपाय यही है, राज-कर्मचारी के लिए विशेष रूप से।

एक बार सीधी नजर से श्यामांग को देखकर फिर काम करने लगता है।

श्यामांग : तुम कहना चाहते हो कि कि मुझे भी सोचना नहीं चाहिए। यही न ?पर मैं मैं कब सोचना चाहता हूँ ? बिना चाहे मस्तिष्क सोचता रहे, सोचता रहे, तो आदमी क्या कर सकता है ?

श्वेतांग : बिना चाहे तो मस्तिष्क सोचता ही रहता है । न सोचने के लिए वैसा चाहना पड़ता है, प्रयत्न करना पड़ता है।

श्यामांग : अब इसके लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है ! प्रयत्न आदमी से न बन पड़े तो ? श्वेतांग : तो सब-कुछ उलझता रहता है। अपने हाथों में देख लो।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book