नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
मेरे हाथों में काम उलझ क्यों जाता है ?
श्वेतांग : (उसी तरह व्यस्त)
इसलिए कि तुम सोचते बहुत हो।
श्यामांग : सोचता बहुत हूँ ? पर उससे क्या होता है ?
श्वेतांग : सब-कुछ उसी से होता है। हाथ काम नहीं करते, आँखें चुंधिया जाती
हैं।
श्यामांग पल-भर आँखें झपकता रहता है।
श्यामांग : हाथ काम नहीं करते, आँखें चुंधिया जाती हैं । तो तुम तुम कभी कुछ
नहीं सोचते ?
श्वेतांग पल-भर अग्निकाष्ट की ओर देखता रहता है, फिर जैसे अतीत से होकर लौटता
है।
श्वेतांग : अब नहीं सोचता। पहले सोचा करता था।
श्यामांग : पहले सोचा करते थे ! और सोचने का परिणाम यह हुआ कि !
श्वेतांग : सोचना छोड़ दिया।
श्यामांग : (सोचता-सा) सोचना छोड़ दिया !
श्वेतांग : आदमी काम करना चाहे तो उपाय यही है, राज-कर्मचारी के लिए विशेष
रूप से।
एक बार सीधी नजर से श्यामांग को देखकर फिर काम करने लगता है।
श्यामांग : तुम कहना चाहते हो कि कि मुझे भी सोचना नहीं चाहिए। यही न ?पर मैं
मैं कब सोचना चाहता हूँ ? बिना चाहे मस्तिष्क सोचता रहे, सोचता रहे, तो आदमी
क्या कर सकता है ?
श्वेतांग : बिना चाहे तो मस्तिष्क सोचता ही रहता है । न सोचने के लिए वैसा
चाहना पड़ता है, प्रयत्न करना पड़ता है।
श्यामांग : अब इसके लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है ! प्रयत्न आदमी से न बन
पड़े तो ? श्वेतांग : तो सब-कुछ उलझता रहता है। अपने हाथों में देख लो।
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