नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
सुंदरी : (झूले से उठकर)
अतिथियों को निमंत्रित कर रखा है, इतना ही ?
आकर चबूतरे के सहारे खड़ी हो जाती है।
कामोत्सव की बात नहीं कह सके ?
नंद : कहने की आवश्यकता नहीं थी।
घूमता हुआ श्रृंगारकोष्ट की ओर से होकर सुंदरी के पास आ जाता है।
वे यह बात जानती थीं। उन्होंने स्वयं ही कहा कि...।
सुंदरी : वे जानती थीं न ? मुझे पता था वे अवश्य जानती हैं...।
क्या कहा उन्होंने ?
नंद : कहा कि अपनी व्यस्तता के कारण तुम न भी आ सको, तो मैं तुम्हें उनका
आशीर्वाद...।
सुंदरी चबूतरे का सहारा छोड़कर सीधी खड़ी हो जाती है।
सुंदरी: (कुछ तीव्र स्वर में)
आत्म-वंचना की भी एक सीमा होती है। आज के दिन वे आशीर्वाद देंगी और मुझे ! मन
में क्या सोच रही होंगी, मैं अच्छी तरह जानती हूँ | उन्हीं के कारण...।
श्वेतांग बाईं ओर के द्वार से आता है।
श्वेतांग : (साभिवादन)
देवी के आदेश का पालन हो गया है। श्यामांग को...।
सुंदरी : (उसी तीव्रता के साथ)
श्यामांग का अपराध मैंने क्षमा कर दिया है। अलका को विश्वास है कि उसने जो
कुछ भी किया उन्माद में किया है। मैंने अलका को वचन दिया था कि मैं उसका
अपराध क्षमा कर दूंगी। इसलिए उसके संबंध में मेरा दूसरा आदेश यह है कि उसका
उपचार करने की व्यवस्था की जाए। जब तक वह ठीक नहीं होता तब तक वह अलका की ही
देख-रेख में रहेगा।
श्वेतांग भौचक्का-सा उसकी ओर देखता है जैसे उसे सुनी हुई बात पर विश्वास न हो
रहा हो।
श्वेतांग : तो क्या क्या अभी जाकर ?
सुंदरी : हाँ, अभी जाकर उसे ले आने की व्यवस्था करो और सुनो।
यहाँ अभ्यंतर भाग में जो कर्मचारियों के कक्ष हैं, उन्हीं में से एक में उसे
रखना होगा । अलका को उसकी देखभाल करने में यहाँ सुविधा रहेगी।
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