नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
नंद : हाँ, मैं कह रहा था कि संभव है उतने लोग न भी आएँ, जितने लोगों के आने
की हम आशा कर रहे हैं।
सुंदरी : (थोड़ा तमककर) ।
क्यों ? आज तक कभी हुआ है कि कपिलवस्तु के किसी राजपुरुष ने इस भवन से
निमंत्रण पाकर अपने को कृतार्थ न समझा हो ? कोई एक भी व्यक्ति कभी समय पर आने
से रहा हो ? अस्वस्थता के कारण या नगर से बाहर रहने के
कारण कोई न आ पाए, तो बात दूसरी है।
नंद : मैं यही तो कह रहा था कि संभव है। कुछ लोगों के लिए ऐसे कुछ कारण हो
जाएँ। सोमदत्त और विशाखदेव
के यहाँ मैं अभी स्वयं होकर आया था ।
सुंदरी : (आवेश में उसके पास आकर)
आप स्वयं उन लोगों के यहाँ होकर आए हैं ? क्यों ? आपका स्वयं लोगों के यहाँ
जाना विशेष रूप से यह कहने.
के लिए यह क्या अपमान का विषय नहीं है ?
नंद : मैं विशेष रूप से नहीं गया ।
दीपाधार और श्रृंगारकोष्ठ के बीच टहलता है। गया था देवी यशोधरा से मिलने ।
सुंदरी : (और तमककर)
देवी यशोधरा से मिलने ?
नंद : उन्होंने बुला भेजा था।
सुंदरी : बुला भेजा था ? क्यों ?
नंद: (टहलते हुए रुककर)
उन्होंने कहलाया था कि कल से वे इस भवन में नहीं रहेंगी बाहर भिक्षुणियों के
शिविर में चली जाएँगी, इसलिए । :
सुंदरी: इसलिए क्या ?
नंद फिर टहलने लगता है। इसलिए चाहती हैं कि आज अंतिम बार भवन में अपने सब
बांधवों से मिल लें।
सुंदरी मन में उमड़ते हुए भाव को किसी तरह दबाकर झूले पर जा बैठती है।
सुंदरी : तो उनके मन का मोह अभी छूटा नहीं है ? ।
नंद : मोह की बात' (बात बीच में ही रोककर) हो सकता है ऐसा ही हो।'' उन्होंने
कहलाया तुम्हारे लिए भी था। :
सुंदरी: और आपने जाकर मेरी ओर से क्षमा माँग ली।
नंद : नहीं। मैंने कहा कि तुमने आज कुछ अतिथियों को निमंत्रित कर रखा है,
इसलिए...।
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