नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
श्वेतांग : (कुछ संकोच के साथ)
मैं कहना चाहता था देवि, कि यदि आज की रात !
सुंदरी : (अधीर होकर)
मैंने जो आदेश दिया है, उसका पालन करो। जाओ।
श्वेतांग बाई ओर के द्वार से चला जाता है। नंद इस बीच पीछे के दीपाधार के पास
जाकर कुछ-एक बुझे हुए दीपकों को दूसरे दीपकों की लौ से जलाता है। फिर सुंदरी
की ओर लौट आता है।
नंद : श्यामांग को क्या हुआ है ?
सुंदरी : मुझे आप स्मरण न दिलाएँ, मैं अब उस बात को भूल जाना चाहती हूँ।
परंतु उसके उन्माद की बात ? बात कुछ नहीं है। काम कर रहा था। अचानक बहकी-बहकी
बातें करने लगा। फिर एक अपराध उससे हो गया। परंतु मैंने उसे क्षमा कर दिया
है।
नंद पल-भर मौन रहता है।
नंद : तुम बुरा तो नहीं मान गईं ?
सुंदरी : किस बात का ?
नंद : मेरे अकारण बाहर रुके रहने का देर से लौटकर आने का ?
सुंदरी : नहीं तो। आप समय से पहले तो आ ही गए हैं।
नंद: फिर ऐसी क्यों हो रही हो ?
सुंदरी : कैसी हो रही हूँ ?
नंद: यह तो मैं ही देख सकता हूँ जो तुम्हारे चेहरे का दर्पण हूँ
सुंदरी : रहने दीजिए, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।
नंद : अच्छा नहीं लगता ! मगर यह बात मेरी नहीं, तुम्हारी कही हुई है। तुम्हें
याद नहीं ?
सुंदरी : आज मुझे कुछ भी याद नहीं ।
नंद : यह भी याद नहीं कि तुमने आज कामोत्सव का आयोजन किया है तुम्हारे कुछ
अतिथि अभी आनेवाले हैं। कुछ अतिथि ! आप बार-बार यह क्यों कहना चाहते हैं कि
सब अतिथि नहीं आएँगे ?' सोमदत्त और विशाखदेव इससे लज्जित नहीं हुए कि आप कहने
के लिए स्वयं उनके यहाँ गए ?
नंद बाँहें पीछे करके फिर टहलने लगता है।
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