नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
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सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
शशांक : (सुंदरी से)
सुनो...!
सुंदरी : और जितने मदिरापात्र हैं. आज के लिए कुछ विशेष मदिराएँ प्रस्तुत की
हैं ?
शशांक : हाँ, देवि ! कुछ ऐसे सम्मिश्रण हैं जिनका राजभवन में आज पहली बार
सेवन किया जाएगा।
नंद : (सुंदरी के निकट आकर)
मैं एक बात कहना चाहता था...।
सुंदरी : तो मदिरापात्र और चषक कमलताल के पास के चबूतरे पर रखवा देना, और
वहाँ भी आसपास कुछ आसन बिछवा देना । जब सारी व्यवस्था हो जाए, तो आकर मुझे
सूचित कर देना।
शशांक आज्ञा-ग्रहण के रूप में सिर हिलाकर बाई ओर के द्वार से चला जाता है।
सुंदरी मुड़कर नंद की ओर देखती है।
सुंदरी : आप कुछ कह रहे थे ?
नंद अनिश्चित-सा उसकी ओर देखता है।
नंद : हाँ नहीं ऐसी कुछ विशेष बात नहीं थी। मैं यही कहना चाहता था कि
व्यवस्था यदि उद्यान के स्थान पर कक्ष में
की जाए, तो ।
सुंदरी : इस कक्ष में ? इस कक्ष में इतना स्थान है कि सब अतिथि यहाँ आ सकें ?
नंद : इतना स्थान तो नहीं है, फिर भी ।
मुड़कर मदिराकोष्ठ की ओर जाता है।
सुंदरी : मदिरा लेंगे ? अभी मैंने कहा था तो ।
नंद : (जैसे चौंककर)
हाँ नहीं - मैं इस विचार से इधर नहीं आया।
फिर से मुड़कर सुंदरी की ओर आ जाता है।
सुंदरी : आप व्यवस्था के संबंध में कुछ कह रहे थे।
नंद आकर आगे के दीपाधार के पास खड़ा हो जाता है।
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