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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


और फिर उस महिला-गोष्ठी की सम्मिलित ठहाके की गूंज बड़ी देर तक गूंजती रही थी।

वह भी तो यही कर रही थी। कालिंदी के ओठों को स्वयं ही एक खिन्न स्मित ने विकृत कर दिया था। वह भी तो सम्बन्ध ही पूँजकर खा रही थी और शायद जीवन-भर यही करती रहेगी। उसके लिए भी तो दीया लेकर ही ऊँचा कुल ढूँढ़ा गया था-यही कारण था कि वह मामी के बुलाए जाने पर भी बाहर जाकर, उनकी महिला-गोष्ठी में भाग नहीं लेती थी। एक ही बार गई तो महिलाओं की कौतूहली दृष्टि ने उसे छेदकर रख दिया था। उसका अतीत, उनसे निश्चय ही अब तक छिपा नहीं होगा, फिर क्यों वहाँ जाकर स्वयं उनकी जिज्ञासा को झकझोरे कि आ बैल, मुझे मार? पर कभी-कभी कोई उसी भीड़ से, बड़े दुःसाहस से निकल, सीधे उसके पास चली आतीं, “भई, सुना, तुम डाक्टरनी हो, अब तुमसे क्या छिपाएँ, कमर में बड़ा दर्द है हमारे और कुछ 'पछि' (दिन चढ़ना) भी गए हैं हम-अब इस उम्र में यह हालत, हमसे सही नहीं जाती। अभी पिछले महीने बिटिया ब्याही है, दामाद को क्या मुँह दिखाएँगे हम? छुटकारा दिला दो बच्ची।"

और कालिंदी, जहाँ तक होता, उनकी सहायता करती। उन्हीं में से एक, उससे पेचिश की दवा माँगने आई तो रोगमुक्त होने पर भी नित्य ही आने : लगी। बड़ी-बड़ी शरबती आँखें, सुतवाँ नाक और छरहरी बेंत-सी लचीली देह की स्वामिनी वह हँसमुख सुन्दर सरोज, कालिंदी को बहुत अच्छी लगती थी। विवाह को साल भी नहीं हुआ था कि ससुराल वाले उसे सदा के लिए मायके पटक गए थे। अभी उसकी पीठ पीछे तीन-तीन कुँआरी बहनें ब्याहने को बैठी थीं, दमे के मरीज चिर रुग्ण पिता कचहरी में अर्जीनवीस थे-सरोज . बीस वर्ष की थी, पर दूर से देखने पर सोलह की भी नहीं लगती।

आश्चर्य की बात तो यह थी कि इतना बड़ा आघात पाकर भी वह लड़की सदा हँसती रहती, विषाद की सामान्य रेखा भी उस चारुचन्द्र की हँसी को विकृत नहीं कर पाई थी। कुमाऊँ की अधिकांश कुँआरी कन्याओं की भाँति वह भी विवाह पूर्व बी.टी. कर चुकी थी। कालिंदी अब तक जितनी कुँआरी लड़कियों से मिली, उसे अपने एक ही प्रश्न का, एक ही उत्तर मिला था।

"क्या कर रही हो?"

"बी.टी."।

यह बेचारी भी उसी बिरादरी की थी।

"जानती हो दीदी," वह फिर हँस-हँसकर उससे कहने लगी थी-“मैं जब बी.टी. करने फार्म भरने गई तो मेरे मामा बोले-अच्छा, तो तू भी बी.टी. कर रही है! यह अल्मोड़े का बी.टी. न हो गया, 'को जे बीट' (कौए का बीट) हो गया। जहाँ देखो, वहीं बी.टी. या तो कर रही है या कर चुकी है।"

सरोज के पिता उन भाग्यशाली जनकों में से थे जिन्हें दामाद ढूँढ़ना नहीं पड़ता, स्वयं दामाद उन्हें ढूँढ़ लेता है। लड़का विदेश में है, केवल फेरे लेने भारत आएगा और सप्तसदी सम्पन्न होते ही उनकी पुत्री को लेकर, सात समुद्र पार उड़ जाएगा-यही सुनकर बेचारा सरल कुमाऊँनी ब्राह्मण परम संतुष्ट हो गया था और बिना किसी पूछताछ के कुश-कन्या थामे, आँखें मूंद धड़ाम से कुएँ में कूद गया था। बड़ी लड़की ठौर-ठिकाने लग गई तो बची-खुची बेटियाँ भी उसका हाथ पकड़, विवाह वैतरणी पार कर ही लेंगी-उनसे कहा गया था कि वे केवल कुश-कन्या लेकर ही दिल्ली पधारें, वहीं एक होटल में दिन ही दिन में विवाह सम्पन्न हो जाएगा। संस्कारशील ब्राह्मण का माथा ठनका था, विवाह-जैसा पावन संस्कार भी क्या अब प्रेशर कुकर में चुटकियों में पकनेवाली दाल बन गया है-वह भी कुमाऊँ में, जहाँ गोधूलि में द्वाराचार सम्पन्न किया जाना विवाह का एक अनिवार्य नियम है? सप्तसदी पूर्ण होने पर कैसे देखेगी उनकी पत्री आकाश के उस तारे को? पर क्या करते, सबने समझा-बुझाकर उन्हें राजी कर लिया, “अब तो पहाड़ों में यही सब हो रहा है, दिन ही दिन में विवाह निबटाए जा रहे हैं-आप ही क्या ऐसा पहली बार कर रहे हैं?"

विवाह के दूसरे ही दिन वर-वधू के फुर्र से विदेश उड़ जाने की बात उनसे कही गई थी पर जब उड़ने का समय हुआ तो चिड्डा ही अकेले फुरी से उड़ गया, चिड़िया चोंच फैलाए देखती रही। वीसा की जटिलता से नई नवेली को परिचित करा वर यह कहकर उसके आँसू पोंछ गया था कि वीसा बनते ही वह उसे बुला भेजेगा। पर नियति तो मुँह में आँचल दूंसे हँस रही थी। पुत्र को एयरपोर्ट पहुँचाकर पिता लौटे तो छाती पर हाथ धरे, देहरी पर ही 'हाय राम' कर ढेर हो गए। डॉक्टरों ने कहा, जबरदस्त दिल के दौरे ने ही उनके प्राण ले लिए हैं।

सरोज की सास ने फिर मृत पति की निष्प्राण देह पर पछाड़ें खा-खाकर, बार-बार एक ही कसम खाई थी, वह अब इस अलक्षिणी बहू का मुँह नहीं देखेगी-अभी तो उसने घर में पैर रखते ही ससुर को लील लिया था, कहीं उसके इकलौते बेटे को भी न निगल ले!

तत्काल उसे नाइट बस से ही पिता के साथ खोटे सिक्के-सा लौटा दिया था।

“वह दिन और आज का दिन..."-सरोज ने आँखें पोंछकर कालिंदी से कहा था, "न मेरे ससुराल वालों ने मुझे कभी बुलाया, न बाबू ही ने मुझे वहाँ भेजने की बात उठाई। मेरा सारा गहना-बर्तन-सब कुछ उन्हीं ने रख लिया।"

"और तुम चुप रहीं?" कालिंदी का खून खौल उठा था।

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