नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"मैं क्या करती दीदी? मैं जब आई तो मेरी सास ने कहा था-खबरदार जो अब इस घर
में कभी पैर भी धरा, टाँगें तोड़ दूंगी तेरी-बाबू कहते हैं, तू पढ़ी-लिखी है,
कहीं न कहीं तो नौकरी मिल ही जाएगी-पर कहाँ मिल रही है नौकरी! कब से तो
एम्प्लायटमेंट एक्सचेंज में नाम लिखा है, जब इंटरव्यू के लिए बुलाते हैं,
जाती हूँ, पर कौन देगा मुझे नौकरी? न कोई सिफारिश करनेवाला है, न बाबू के पास
इतनी रकम है कि घूस दें।"
सरोज से अम्मा का बिरादरी का रिश्ता भी था।
"भाग्य है बेचारी का!" अम्मा ने कहा था, "कैसी प्यारी सूरत है और गाने-नाचने
में इसकी टक्कर की अल्मोड़े भर में कोई दूसरी नहीं जुटेगीमजाल है पहाड़ की
शादियों की एक भी 'रत्याली' (रतजगा) इसके बिना जम जाए! छटंकी भर तो मांस है
देह में, पर नाचती है तो रात-भर नाचती चली जाती है-कहते हैं, इसे पूरे सौ
बन्ने घोड़ियाँ याद हैं।"
कालिंदी को सरोज़ इसलिए भी अच्छी लगती थी कि उसके जीवन को भी नियति ने उसी
निर्ममता से झिंझोड़ा था, जैसे उसके जीवन को! अन्तर इतना था, जहाँ कालिंदी ने
सिर उठाकर उस अधूरे विवाह के आघात को बड़ी हिम्मत से झेल लिया था और झेल रही
थी, वहीं बेचारी सरोज को वह आघात बुरी तरह क्षत-विक्षत कर, संसार से विरक्त
कर गया था।
"कभी-कभी सोचती हूँ दीदी, कैंची चली जाऊँ-नीम करौली बाबा के उस आश्रम में,
बड़ा सुख है, बड़ी शान्ति और फिर मेरी माँ सिद्धिमाई की पुरानी सहेली रह चुकी
है। अच्छा दीदी, तुम तो बहादुर हो, सुना है, तुमने अपने लोभी ससुर को थप्पड़
मारकर अपनी बारात लौटा दी?"
कालिंदी को उसका भोला मुँहफट प्रश्न हँसा गया।
"नहीं, थप्पड़ तो नहीं मारा-हाँ, बारात जरूर लौटा दी थी।"
"ठीक किया तुमने, पर जानती हो,” उसका स्वर सहसा गहन नैराश्य में डूबकर धीमा
पड़ गया, “मैं तुम्हारी जगह होती तो ऐसा कभी नहीं करती।"
“अच्छा, सरोज!” कालिंदी ने उसे गुदगुदाने की चेष्टा की थी, “तूने अपने दूल्हे
को देखा था? अब कहीं दिखा तो तू पहचान लेगी उसे?"
“क्यों? तुमने अपने दूल्हे को देखा था दीदी-अब मिला तो पहचान लोगी?"
उसने हँसकर जवावी हमला किया तो कालिंदी सकपका गई-इस दुःसाहसी प्रश्न के लिए
वह प्रस्तुत नहीं थी यद्यपि वह समझ गई थी कि उस भोली लड़की के उस प्रश्न के
पीछे उसे आहत करने का कोई कुटिल प्रयास नहीं है-फिर भी वह चुप रही, अनमनी
दृष्टि उसने खुली खिड़की की ओर घुमा ली।
फिर उसके पहले पूछे गए प्रश्न का उत्तर सरोज स्वयं ही देने लगी, "पहचानूँगी
कैसे नहीं दीदी! पूरी रात तो हम साथ ही रहे थे, फिर उनका ऊँचा डीलडौल, चेहरा,
हँसी-सब कुछ ही तो एकदम अलग है, सबसे अलग। कह रहे थे, हमारे पुरखे कान्यकुब्ज
ब्राह्मण थे-राजगुरु! एक बार कलमटिया में लकड़ी नहीं मिली तो राजा के भंडार
से लोहा लेकर ही उनके पुरखों ने होम कर दिया। राजा के सन्तरियों से होम करने
लकड़ी माँगी और उन्होंने मजाक में लोहे के डंडे थमा दिए। इनके पुरखे पांडेजी
थे महातान्त्रिक, उन्होंने लोहा ही झोंक दिया। बस, धू-धू कर लकड़ी-सी लोहे की
इंडियाँ सुलग उठी-तब ही से वह मिट्टी काली पड़ गई और नाम हो गया-कलमटिया।"
सचमुच ही मीलों तक लम्बी अल्मोड़े की सड़क अब भी काली है। वह सरोज के साथ ही
तो. 'काषारदेवी' के उस प्राचीन मन्दिर के दर्शन को उसी सड़क पर चल कर गई थी।
"जानती हो दीदी, यहाँ से कुछ ही दूर एक प्रसिद्ध धारा भी है-'सिरीकोट का
धारा'।
“वह भी तेरे पुरखों ने बनाया है क्या?"
हँसकर कालिंदी ने पूछा तो उसने गम्भीर स्वर में कहा, "और नहीं तो क्या? सुना
है, वर्षों पूर्व यहाँ दूर-दूर तक पानी नहीं था-हमारे पुरखे श्रीवल्लभ जी की
स्त्री, एक दिन सिर पर घड़ा धर, बड़ी दूर से पति की पूजा के लिए पानी लाई तो
उन्होंने कहा-तू सिर पर घड़ा धर कर पूजा का पानी लाई है, यह पानी तो अब
भ्रष्ट हो गया है।
"उनकी पत्नी को भी गुस्सा आ गया, बोली-ऐसे ही तान्त्रिक हो तो खुद पानी पैदा
कर लो ना।
"पंडितजी ने वहीं पर कुश उखाड़ा, और मीठे पानी का झरना फूट निकला। वही अब भी
श्री वल्लभजी का धारा कहलाता है-हाय, ऐसा मीठा-ठंडा पानी है कि जैसे मिश्री
घुली हो।
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