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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


लम्बा रास्ता देखते-ही-देखते कट गया पर कालिंदी उन जुड़वाँ देवदूतों के भोले चेहरे और उनकी युवजननी की करुण मुखमुद्रा भूल नहीं पा रही थी। उतना बड़ा फ्लैट था उसका, उन तीनों को वह बड़े आराम से अपने साथ रख सकती थी-किन्तु अपनी ही समवयसिनी उस पूर्ण यौवना सुन्दरी युवती को वह अपने पीछे अकेली, उस निभृत फ्लैट में छोड़ सकेगी?

इधर-उधर घूमने में, समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया था। कुछ ही महीनों में कालिंदी मामी और अम्मा में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख रही थी। परिवेश के साथ-साथ, शीला मामी ही नहीं, मामा भी एकदम बदल गए थे-प्रत्येक शहर का व्यक्तित्व, मनुष्य के व्यक्तित्व पर भी अपनी छाप अवश्य छोड़ देता है, यह वह समझने लगी थी। वह यहाँ आकर स्थायी रूप से बस गई तो वह भी शायद उन्हीं की तरह बदल जाएगी। मामी को उसने कभी घर की धुली, मुड़ी-तुड़ी साड़ी पहने नहीं देखा था। अम्मा को भी नित्य स्वच्छ कड़ी कलफ की गई झकसफेद साड़ी पहनने का अभ्यास था। मामी तो सदा ही ढंग-सलीके की साज-सज्जा में सँवरने पर ही कमरे से बाहर निकलती थी-चूड़ी कार्डिगन, चप्पल सब कुछ मैचिंग, मजाल है जो परिपाटी से बाँधे गए जूड़े का एक बाल भी इधर से उधर हो!

उधर मामा तो जन्म से ही साहबी रुचि के व्यक्ति थे। पाजामा-कुर्ता ही क्यों न हो पर न कहीं सिकुड़न, न शिकन। वर्दी के तो कहने ही क्या, एक-एक पीतल के बटन, स्टार चमकाते अर्दली पसीना-पसीना हो जाते, फिर भी मामा को सन्तोष नहीं होता, "रगड़ कर चमकाओ, क्या खाना नहीं खाया है आज?" वे अनुचरों को डाँटते। एक तो पहले ही वे रोबदार अफसर के रोब से थरथर काँपते थे। उसने उन्हें कभी मातहतों के सामने हँसते नहीं देखा था।

एक दिन न जाने किस बात पर उन्हें अपने स्टेनो के सामने हँसी आ गई थी और कालिंदी ने अपने कमरे में सुन लिया, स्टेनो बाहर खड़े संतरियों से हँसकर कह रहा था, “आज बचकर रहना तुम सब, बीरबल को भी हँसी आ गई है आज! यह अच्छा लक्षण नहीं है..."

वही मामा अब एकदम पहाड़ी बन गए थे-सिर पर लपेटा मफलर, पाजामे के पैंचों पर फूहड़ दुःसाहस से चढ़े गर्म मोजे, मुट्ठी में बँधे सिगरेट की ठेठ पहाड़ी दमें और बार-बार नाक पर दुलकता चश्मा।

यद्यपि शीला मामी और अम्मा का सामाजिक दायरा अब उतना संकुचित नहीं रहा था, फिर भी बीच-बीच में दोनों की आँखों में समृद्ध अतीत के प्रति अनुरागपूर्ण खिंचाव उसने देख लिया था। कहाँ दिल्ली का वह जीवन और कहाँ अल्मोड़ा की ऐसी नीरस दिनचर्या! हो सकता है, उसे ही वह नीरस लग रही हो क्योंकि दिन-भर महिलाओं की गप्पगोष्ठी जमती, तो मामी और अम्मा को देखकर लगता, उन्हें भी आनन्द आ ही रहा है। एक वही लाख बुलाए जाने पर भी अपने कमरे में बैठी पढ़ती रहती। धूप निकलती और मामा घूमने निकल जाते और मामी, अम्मा अपने लिए नित्य नवीन काम जुटा लेती-कभी बड़ी-मुंगौड़ी डालने का कार्यक्रम, कभी स्वेटर, दस्ताने, मोजे, मफलर बिनने का।

नित्य मिलने वालियों की अनन्त भीड़ पहले तो मंगल-शनिवार का परहेज करती थी, इन दो मनहूस दिनों में केवल गर्मी में ही कहीं जाने की पुरानी पहाड़ी प्रथा है, पर फिर वह बंधन भी स्वेच्छा से तोड़ दिया गया, “अब कैसा मंगल और कैसा शनि, अव रोज ही आते हैं तो कैसा विचार, हम तो भई नहीं मानेंगे ये ढकोसले।"

स्टील के गिलासों में गरम चाय सुड़काती, मिलने वालियाँ एक से एक नवीन स्कैंडल की पोटलियाँ खोलने लगतीं, तो अकेले कमरे में पढ़ रही कालिंदी को हँसी भी आती। किसकी लड़की को दिल्ली जाते ही ऐसे पर लग गए हैं कि अब अपने रिश्ते के मामा से ही विवाह करने जा रही है, “ए हो अन्नदिदी, तुमने सुनी कभी ऐसी अनहोनी?"

दूसरी, अम्मा के उत्तर देने से पहले ही उसकी जिज्ञासा का अन्त कर देती, "क्यों? इसमें सुनने की भला कौन-सी बात है? उसकी माँ ने भी ऐसा ही किया था, सगे मौसेरे भाई से ही तो विवाह कर हमारी बिरादरी की नाक कटाई थी, वही आज बेटी भी कर रही है-खूब थप्पड़ मारा था पहाड़ियों को। सम्बन्ध-सम्बन्ध, ऊँची धोती, छोटी धोती-यही सब विचारने में दिन पर दिन सयानी हो रही बेटियों की उम्र भूलते जाएँगे, तो यही होगा-जब तुम माँ-बाप होकर वक्त पर अपनी बेटियों के लिए घर-वर नहीं ढूँढ़ोगे तो फिर वे क्या भूखी रहेंगी? पढ़ी-लिखी हैं, खुद ढूँढ़ लेंगी।"

एक पल को उस मुखरा नारी ने सबके मुँह वन्द कर दिए। एक सहमी चुप्पी के बीच केवल स्वेटरों की सलाइयाँ चलती रहीं-खटखट खटखट, फिर उसी पार्वती बुआ ने, खिल्ल से हँसकर बर्फ की सिल्ली तोड़ दी, "सुनो री चेलियो, तुम्हें एक मजेदार बात बताऊँ। हमारे पहाड़ की ही एकदम सच्ची घटना है। मेरी नानी थी षटकुली ब्राह्मणों की बेटी, ऊँचा कुल और वैसी ही ऊँची नाक। सुना, उन्हीं झिंझाड़ के जोशियों ने सैकड़ों वर्षों तक, कुमाऊँ के राजे-रजवाड़ों को शतरंज की गोटों-सा नचाया है- जैसी बुद्धि, वैसा ही रियासती चातुर्य, अब दीवानों की इकलौती बेटी मेरी नानी को, अपने से छोटे कुल में कैसे व्याहा जाता? बहुत ढूँढ़ने पर मेरे नाना जुटे-कुल में अव्वल, सारस्वत ब्राह्मण, मंडिलिया के पांडे, नाम के जागीरदार पर घोर दरिद्र! कभी पूरा परिवार भट्ट के बीज ही भून पानी पी सो जाता, कभी चावल का माँड। धीरे-धीरे वह भी नहीं रहा। एक दिन झिंझाड़ के दीवान पुत्री की कोई कुशल न पाकर स्वयं उसकी खोज-खबर लेने पहुँचे-पूरे तीन साल बीत गए थे, पर काली पार ब्याही गई उनकी नाजों की पली पुत्री का कोई समाचार नहीं मिला था। दिन डूबे पहुँचे तो देखा-एक बड़ी-सी कड़ाही में सोंठ-सी सूख गई उनकी बेटी, भाँग के बीज भून रही है। आहा, कैसी सुघड़ सुन्दर बेटी थी उनकी, और कैसे दीया लेकर उन्होंने उसके लिए यह ऊँचे सम्बन्ध का ऊँचा कुल ढूँढ़ा था, पर यह क्या, भाँग के बीज तो कुमाऊँ के विपन्न दरिद्र परिवार पूँज कर खाते हैं!

"क्या कर रही है चेली?" उन्होंने कंठ के गह्वर को घुटककर पूछा।

"बाबू, सम्बन्ध भुन खाण्यूँ।” (वाबू, सम्बन्ध पूँजकर खा रही हूँ।)

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