नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
शीला ने हँस कर दस-दस के दो नोट उन्हें भी थमा दिए तो वे तीर-से भागे कि कहीं
माँ न छीन ले-और वह भी उनके पीछे उसी वेग से भागी।
"नाश है जाल तुमर छवारो, बाघ ल्ही जा तुमन, ला, नोट ला!” (तुम्हारा नाश हो
छोकरो, तुम्हें बाघ ले जाए-लाओ, नोट इधर दो।)
“पहाड़ की यही दरिद्रता मुझे कभी-कभी बुरी तरह झिंझोड़ देती है चड़ी!"
देवेन्द्र ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, “यहाँ से दो-दो मुख्यमन्त्री, प्रदेश
के स्वर्ण सिंहासन पर बैठे, न जाने कितनों ने मन्त्रीपद भोगा-कितने संसद
सदस्य वने, पर क्या कभी पहाड़ के इस दलित वर्ग के लिए कुछ कर सके? कत्यूर की
यह घाटी ही शायद अभिशप्त है। ये दो दर्जन श्रीहीन घर तू देख रही है, ये सब
राजमहल के पत्थरों के बने हैं। यहाँ कभी सोने के सिंहासन पर बैठ, राजा-रांनी
चौपड़ खेलते थे। यह जो पत्थर का चबूतरा देख रही है, वह था रानियों का
अंतःमहल! कत्यूरी राजा बीरदेव मीलों दूर हथछिना का ताजा मीठा पानी, अपनी
प्रजा की लम्बी कतार घंटों खड़ी कर, हाथोंहाथ नित्य अपने पीने के लिए मंगवाता
था, आज भी उन अत्याचारी निरंकुश राजाओं के अत्याचार की गाथाएँ यहाँ के
मन्दिरों में गायी जाती हैं :
हंकारो तुम्हारो बाबा
जिन ऊँचा.गढ़ नीचा बनाया
हंकारो तुम्हारो बाबा
सुलटी नाली लै ल्हिछा
उलटी नाली लै रिछा
तरुणी तिरिया रुण नी दीना
वरुणी बाकरी ज्यूण नी दिना
महाराजन के राजा
पेड़ पर फल, फूल हूंण नी दीना।"
(हंकारा हो बाबा, जिन्होंने ऊँचे गढ़ों को नीचा बना दिया, सीधी नाली (अनाज
मापने का पात्र) से अनाज उघाते हो, उल्टी से हमें देते हो-तुम्हारे राज्य में
तरुणी तिरिया और वरुणी बकरी रह ही कहाँ पाती है? हे महाराजों के राजा-पेड़ पर
फलफूल भी तो तुम नहीं रहने देते! तुम्हारा हंकारा हो!)
आज के राजा भी तो यही कर रहे हैं-उसने भी तो आज तक चौपड़ ही खेली है और शतरंज
के मोहरें बनी है पहाड़ की सरल जनता!
झूला-पुल को झूले-सी हिलाती उनकी बस चली तो कालिंदी ने देखा, भीमसिंह-गजैसिंह
नदी के पत्थर पर बैठ, परम तृप्ति से बीड़ी फूंक रहे हैं। उदार टिप का सदुपयोग
करने में उन्होंने विलम्ब नहीं किया था।
"हाय मामी, देखो, आठ साल के भी नहीं हुए होंगे अभी-और देख, कैसे फकाफक बीड़ी
पी रहे हैं!"
"तुमने उनकी माँ को नोट दिए होते शीला, मैं तुम्हें टोकने जा रही थी पर तब तक
तुम उन्हें थमा चुकी थीं-मैंने इसी से उनकी माँ को दिया-सोचा था, जाने से
पहले मन्दिर में भगवती को चढ़ाऊँगी-वैसे भी पुजारी के पेट में जाता, इससे तो
अच्छा है, उनके पेट में जाए।"
"मेरा तो मन करता था मामा, उन्हें अपने साथ दिल्ली उठा ले जाऊँ और किसी स्कूल
में भर्ती करा दूं।"
ऐसी गलती कभी न करना चड़ी-इन्हें चर्बी बहुत जल्दी लगती है-पढ़ते तो क्या,
साल भर में तुझे पढ़ा देते-पर दोष.तो हमारा ही है-हमारे स्वार्थ ने ही तो
इनका भविष्य बिगाड़ा है-हमी ने इनका वर्गीकरण कर दिया है "भनमजुवा' (बर्तन
मलने वाले)। लड़की ब्याह कर ससुराल गई तो उसका हाथ बटाने एक पहाड़ी छोकरा भेज
दिया, मित्रों ने आग्रह किया तो उनके लिए एक अदद पहाड़ी छोकरा भेज दिया। मैं
जब कभी दिल्ली से पहाड़ आता, न जाने कितनों ने मुझसे कहा-आप जब जाएँ तो प्लीज
एक छोटा-सा लड़का हमारे लिए भी ले आइएगा-यानी पहाड़ी लड़के ने हो गए, यहाँ की
बाल सिंघौड़ी मिठाई हो गई, निखालिस खोये की और बेहद सस्ती!"
"ऐसा तो मत कह देबी, हमारे बाबू ने क्या ऐसा ही किया था?"
“बाबू की बात छोड़ दो दीदी, अब उस मिट्टी से मूरत गढ़ना विधाता ने भी छोड़
दिया है, बिकती जो नहीं!"
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